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बिहार के रोहतास के इस गांव में नहीं है कोई साक्षर, पहली बार आई मैट्रिक पास बहू तो बदलने लगी तस्‍वीर

रोहतास जिले के अंतिम गांव डूमरखोहा की यह कहानी है। यहां एक भी स्‍कूल नहीं है। दूसरे गांव बेल्दूरिया में सघन जंगल पार कर छोटे छोटे बच्चे को स्कूल आना जाना बहुत ही दूभर है। मगर शिक्षिका चंचला देवी से प्रेरित होकर कुछ घरों के बच्‍चे पढ़ रहे हैं।

By Sumita JaiswalEdited By: Published: Wed, 20 Oct 2021 02:37 PM (IST)Updated: Wed, 20 Oct 2021 02:37 PM (IST)
बिहार के रोहतास के इस गांव में नहीं है कोई साक्षर, पहली बार आई मैट्रिक पास बहू तो बदलने लगी तस्‍वीर
शिक्षिका चंचला देवी की तस्‍वीर। जागरण फोटो।

नौहट्टा (रोहतास), विनय कुमार पाठक। बिहार यूपी की सीमा पर रोहतास जिले के अंतिम गांव डूमरखोहा की शिक्षिका चंचला देवी की कहानी सुन आप भी हैरान हो जाएंगे। पांच साल तक कैमूर पहाड़ी के घने जंगलों के बीच पैदल, फिर साइकिल और वर्तमान में स्कूटी से वो 7 किलोमीटर दूर स्कूल पढ़ाने के लिए जाती रही। उस दौर में घने जंगलों में नक्सलियों की लगातार चहलकदमी होती थी। लेकिन महिला शिक्षिका का हौसला इतना बुलंद था कि किसी से उसे रोकने या टोकने की भी कोशिश नहीं की। पिछले 15 सालों से वे ग्रामीणों को शिक्षा का महत्‍व समझा रही। जिसके परिणाम स्‍वरूप इस गांव में बच्‍चे अब पढ़ने लगे हैं। दैनिक जागरण से बातचीत में चंचला देवी ने कहा कि समाज और परिवेश में बदलाव केवल मनोबल उंचा रखने से हो सकता है।  

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गांव में आई पढ़ी-लिखी बहूरिया

बिहार के इस अंतिम गांव में एक भी व्यक्ति साक्षर नहीं है। झारखंड प्रदेश के नगर उटारी गांव की रहने वाली चंचला की शादी करीब आज से तीस वर्ष पहले इस गांव में हुई थी। ब्याह होने के बाद जब चंचला इस गांव में आई तब उसे पता चला कि गांव के लोगो को पढ़ाई लिखाई से कोई मतलब नही है। गांव में कुछ लोग अक्षर पहचानते है । कुछ साक्षर है लेकिन मैट्रिक पास कोई नही है।नई नवेली बहुरिया के बारे में गांव में चर्चा होने लगी कि मैट्रिक पास पढ़ी लिखी बहु आई है। मैट्रिक पास बहुरिया गांव में आने से गांव के लोग खुश हुए। शादी होने के बाद भी चंचला देवी ने मायके से  अपना पढाई जारी रखा।

शिक्षा के महत्व को बताने का करती हैं प्रयास

यहां आने के बाद उन्हें मालूम हो गया कि इस गांव में अशिक्षा का अंधकार पसरा हुआ है। उसने गांव के लोगों को पढाई का महत्व बताने का प्रयास किया। चंचला देवी बताती है कि वर्ष 2005 में यदुनाथपुर के बेल्दूरिया मीडिल स्कूल में शिक्षिका पद पर चयनित हुई। तब इस क्षेत्र में उग्रवादियों के समानांतर सत्ता चलता था। उग्रवादियों के गतिविधियों  को नजरअंदाज कर चंचला देवी स्कूल में योगदान कर प्रतिदिन गांव से चार किमी दूर आने जाने लगी।

पांच साल तक पढ़ाने के लिए पैदल गई स्कूल

बताती है कि पांच साल तक पढाने के लिए पैदल स्कूल गई। आने जाने में जंगल पार करते समय शुरू में भय भी लगता था,लेकिन हिम्मत नहीं हारी। नक्सली दस्ते भी कभी कभी रास्ते मे  मिलते थे। अकेली महिला को देख नक्सली दस्ता कभी तंग नही किया बल्कि सहयोगात्मक भाव रखा। इसके बाद पांच साल साईकिल से और अब स्कूटी से पढाने स्कूल जाती है। वे बताती हैं कि अपने दोनो बच्चो को मायके में रखकर पढाने का काम किया है।

गांव में नहीं है स्‍कूल

गांव के बच्चे को स्कूल से जोड़ने के लिए प्रयासरत है। घर पर फ्री ट्यूशन रूप में पढ़ाने का उनका प्रयास जारी है। बताती है कि शिक्षा के प्रति लोग जागरूक हो रहे है। गांव में स्कूल नही होने से लाचारी है। गांव से चार किमी दूर बेल्दूरिया गांव में स्कूल है। दोनों गांव के बीच मे सघन जंगल है। जंगल के किनारे से सड़क गुजरी है। ऐसी स्थिति में छोटे छोटे बच्चे को स्कूल आना जाना बहुत ही दूभर है फिर भी इनके बातों से प्रभावित होकर कुछ घरों के बच्चे अपने रिश्तेदारों के घर रहकर पढ़ाई कर रहे है।


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