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माता मुंडेश्वरी मंदिर में बलि की है अनोखी प्रथा, बलि दी जाती है और एक बूंद खून नहीं बहता

मां मुंडेश्वरी मंदिर में भगवान शिव का एक पंचमुखी शिवलिंग है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका रंग सुबह दोपहर और शाम को अलग-अलग दिखाई देता है। मंदिर का गर्भगृह अष्टाकार है। यहां जानिए मंदिर का महत्‍व प्राचीनता और रोचक तथ्‍यों के बारे में।

By Sumita JaiswalEdited By: Published: Wed, 06 Oct 2021 02:42 PM (IST)Updated: Wed, 06 Oct 2021 02:42 PM (IST)
माता मुंडेश्वरी मंदिर में बलि की है अनोखी प्रथा, बलि दी जाती है और एक बूंद खून नहीं बहता
मंदिर में स्‍थापित मां मुण्‍डेश्‍वरी की प्रतिमा। जागरण आर्काइव।

भगवानपुर (कैमूर), संवाद सूत्र। जिले के भगवानपुर प्रखंड के पवरा पहाड़ी पर स्थित मां मुंडेश्वरी मंदिर देश के प्राचीन मंदिरों में शुमार है। इस मंदिर से जुड़े कई रोचक तथ्य हैं। मां मुंडेश्वरी मंदिर कब और किसने बनाया, यह दावे के साथ कहना कठिन है, लेकिन यहां से प्राप्त शिलालेख के अनुसार माना जाता है कि उदय सेन नामक राजा के शासन काल में इसका निर्माण हुआ था। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह मंदिर भारत के सर्वाधिक प्राचीन व सुंदर मंदिरों में एक है। यह मंदिर अष्टकोणीय है। भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित मुंडेश्वरी मंदिर के पुरुत्थान के लिए योजनाएं बनाई जा रही हैं और इसके साथ ही इसे यूनेस्को की लिस्ट में भी शामिल कराने का प्रयास जारी है। मंदिर को वर्ष 2007 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद ने अधिग्रहित किया। उसके बाद से विकास के कार्य में धार्मिक न्यास परिषद के ओर से कार्य कराए जाते है।

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यहां सात्विक बलि की अनूठी है प्रथा :

मां मुंडेश्वरी मंदिर में बलि की अनूठी प्रथा है। यहां पर बिना एक बूंद खून गिरे चावल के अक्षत व मंत्र से बकरे की बलि दी जाती है। लोगों का मानना है कि मन्नत पूरी होने पर लोग मनौती वाले पशु (बकरे) को लेकर मां के दरबार में पहुंचते हैं। मंदिर के पुजारी उस बकरे को मां के सामने खड़ा कर देते हैं। पुजारी मां के चरणों में चावल का अक्षत व पुष्प चढ़ा उसे पशु पर फेंकते हैं तो पशु बेहोश हो जाता है। तब मान लिया जाता है कि बलि की प्रक्रिया पूरी हो गई। इसके बाद उसे मनौती करने वाले श्रद्धालु को सौंप दिया जाता है।

शक्तिपीठ है मां मुंडेश्वरी धाम

मान्यता है कि मध्य युग में ही मां मुंडेश्वरी की उपासना शुरू हो गई थी। मां मुंडेश्वरी धाम देश के प्राचीनतम शक्तिपीठों में से एक है। यहां मां मुंडेश्वरी के विभिन्न रूपों में पूजा की जाती है। पौराणिक व धार्मिक प्रधानता वाले इस मंदिर के मूल देवता हजारों वर्ष पूर्व नारायण अथवा विष्णु थे। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार इस इलाके में अत्याचारी असुर मुंड रहता था। उस असुर से सभी लोग परेशान रहते थे। मां भगवती द्वारा उस अत्याचारी राक्षस का वध किया गया। तब से देवी का नाम मुंडेश्वरी पड़ गया।

मंदिर की प्राचीनता का प्रमाण

मान्यता है कि मां मुंडेश्वरी देवी की पूजा की परंपरा 1900 सालों से अविच्छिन्न चली आ रही है। पूरे वर्ष बड़ी संख्या में भक्तों का यहां आना-जाना लगा रहता है। यह मंदिर भारत का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। मंदिर परिसर में विद्यमान शिलालेखों से इसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। 1838 से 1904 ई. के बीच कई ब्रिटिश विद्वान व पर्यटक यहां आए थे। प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकनन भी यहां आए थे। मंदिर का एक शिलालेख कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में है। पुरातत्वविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 ई. से 636 ई. के बीच का है। इस मंदिर का उल्लेख कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक में किया है। उसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कैमूर में मुंडेश्वरी पहाड़ी है, जहां मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है।

गड़ेरिये ने मंदिर होने की बताई थी बात

कहा जाता है कि इस मंदिर का पता तब चला जब कुछ गड़ेरिये पहाड़ी के ऊपर अपने पशुओं को लेकर घास चराने गए थे। उसी समय मंदिर को देखा था। उस समय पहाड़ी के नीचे निवास करने वाले लोग ही इस मंदिर में पूजा-अर्चना करते थे। यहां से प्राप्त शिलालेख में वर्णित तथ्यों के आधार पर कुछ लोगों द्वारा यह अनुमान लगाया जाता है कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा, जो बाद में शैव मंदिर हो गया तथा उत्तर मध्य युग में शाक्त विचार धारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणित हो गया। मंदिर की प्राचीनता का आभास यहां मिले महाराजा दुत्तगामनी की मुद्रा से भी होता है, जो बौद्ध साहित्य के अनुसार अनुराधापुर वंश का था और ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का शासक रहा था।

इस मंदिर के रोचक तथ्य

मां मुंडेश्वरी मंदिर में भगवान शिव का एक पंचमुखी शिवलिंग है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका रंग सुबह, दोपहर और शाम को अलग-अलग दिखाई देता है। मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह इसके निर्माण से अब तक कायम है। मंदिर के बाहर दक्षिण में नंदी स्थापित है। इसके साथ ही मंदिर के बाहर चारों तरफ मंदिर का ऊपरी हिस्सा का अवशेष बिखरा पड़ा है। यहां मां को शुद्ध घी से बने मिठाई का ही भोग लगता है।

तांडूल प्रसाद की है महत्ता

पिछले कई सालों से मां को प्रसाद के रूप में चढ़ाने के लिए लोग नारियल व ईलायचीदाना ले जाते थे, लेकिन जिला प्रशासन की ओर से एक पहल से अब मां मुंडेश्वरी को तांडूल प्रसाद का भोग लगता है। लोग तांडूल प्रसाद अपने घर से बैठे ऑनलाइन से भी प्राप्त कर सकते है। मां के धाम में आए लोग तांडूल प्रसाद लेना नहीं भूलते।

साल में तीन बार लगता है मेला

मां मुंडेश्वरी के धाम में हर साल लगभग तीन बार मेला लगता है। शारदीय नवरात्रि व चैत्र माह के नवरात्र में तथा तीसरा मेला माघ माह में मेला लगता है। इसके अलावा धार्मिक न्यास परिषद की ओर से वर्ष में एक बार मुंडेश्वरी महोत्सव का भी आयोजन किया जाता है। नवरात्रि में मंदिर के दो दरवाजे खोल दिए जाते है। जिससे कि श्रद्धालुओं को परेशानी न हो।


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