औरंगाबाद में ऊर्जा क्षेत्र को प्रेरित कर सकता है वर्ष 1910 से पानी से चल रहा तेल मिल, जानें स्थिति और देखें तस्वीरें
एक कहावत है-पानी से तेल निकालना। इसे दाउदनगर शहर ने सही साबित किया है। पानी से तेल निकालने वाले कारखाने यहां अभी तक संचालित है। जिसे विस्तार देकर राज्य और केंद्र की सरकारें ऊर्जा के क्षेत्र में नया अध्याय लिख सकती हैं। जानिए कैसे …
उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद): एक कहावत है-पानी से तेल निकालना। इसे दाउदनगर शहर ने सही साबित किया है। जी हां, इस शहर ने पानी से तेल निकालने वाले कारखाने को अभी तक संचालित रखे हुए है। जिसे विस्तार देकर राज्य और केंद्र की सरकारें उर्जा के क्षेत्र में नया अध्याय लिख सकती हैं। यह सोच थी दो उद्यमियों की।
1911 में खोला गया रामचरण राम आयल एण्ड राइस मिल
वर्ष-1911 में सन्युक्त प्रांत से अलग बिहार राज्य के गठन से एक वर्ष पूर्व संगम साव रामचरण राम आयल एण्ड राइस मिल सिपहां में खोला गया था। औद्योगिक घरानों को जहां शोषक माना जाता रहा है वहीं इस मिल की व्यवस्था आदर्श रही है। सोन नहर का निर्माण होने के बाद सन-1910 में नासरीगंज (रोहतास) के उद्यमी संगम साव एवं दाउदनगर के रामचरण राम ने पानी से चलने वाली मिल की स्थापना की। याद करें ठीक उसी समय जब भारत में प्रथम इस्पात कारखाने की आधारशिला जमशेदपुर में रखी गई थी। यहां इंगलैण्ड के बर्मिंघम शहर से आए टरबाइन की दरातें जब पानी के बहाव से घुमी तो विकास का पहिया भी तेजी से घुमा।
बदले औद्योगिक परिवेश के कारण पतन प्रारंभ
मालिकों में शामिल तीसरी पीढ़ी के डा. प्रकाश चन्द्रा को याद है कि इंगलैण्ड का ही बना हुआ एक गैस इंजन है जो क्रुड आयल से चलता था। यह अभी अवशेष के रूप में बचा हुआ है। इस मिल का गौरव और वैभव बड़े इलाके तक फैला था। रामसेवक प्रसाद की मृत्यु (वर्ष 1967) के बाद और बदले औद्योगिक परिवेश के कारण इस अनुठे उद्योग का पतन प्रारंभ हो गया। कभी 150 कर्मचारी यहां रहते थे।
48 की जगह अब सिर्फ 16 कोल्हू चलते हैं
48 की जगह अब सिर्फ 16 कोल्हू चलते हैं। राजस्थान के गंगापुर से प्रतिदिन एक ट्रक न्यूनतम राई आता था। अब सिर्फ महीने में एक ट्रक लाया जाता है। टरबाईन की तकनीकी खराबी दूर करने में काफी परेशानी होती है। कलकता तक जाकर मैकेनिक लाना पड़ता है। सरकार इस तरह के तकनीक को परिमार्जित कराकर नहरी क्षेत्रों में लघु उद्योग के रूप में स्थापित करने हेतु अगर प्रोत्साहित करे तो जल-उर्जा से नहरी इलाकों में लघु-उद्योग का जाल बिछाया जा सकता है। तरक्की की नई राह खुल सकती है। दुर्दशा से मुक्ति प्राप्त हो सकती है।
सरसों नहीं राई की होती है पेराई
डा.प्रकाशचंद्रा कहते हैं कि शुद्धता व गुणवत्ता के लिए यहां सरसों नहीं राई की पेराई होती है। इसलिए बाजार में मूल्य प्रतिष्पर्धा करना मुश्किल होती है। बाजार में टिके रहने के लिए नई तकनीक इस्तेमाल करना होगा, स्पेलर बिठाना होगा किन्तु तब मिल का मूल स्वरूप बदल जाएगा। पारिवारिक बंटवारा के कारण पूंजी निवेश को लेकर उदासीनता भी है।
लगाए जा रहे हैं 12 कोल्हू
मिल संस्थापकों की तीसरी पीढ़ी के डेहरी में रह रहे उदय शंकर बताते हैं कि यहां अब फिल्टर लगा दिया गया है। शुद्धता की गारंटी है। और 12 कोल्हू लगाए जा रहे हैं। दो को इंस्टाल कर दिया गया है। दस शीघ्र ही इंस्टाल किया जाएगा। इसके बाद आठ कोल्हू और लगाए जाएंगे। पुराने कोल्हू की क्षमता कम हो रही है। इसलिए नया लगाया जा रहा है।
अब भी 23 रुपये वार्षिक शुल्क देय
यहां एक मौसम में एक लाख मन सरसो तेल का उत्पादन होता था। नहर में पानी ग्यारह महीने उपलब्ध होता था। अंग्रेजों के शासन में गया के तत्कालीन कलक्टर से मिल मालिकों का जो समझौता हुआ था, उसके अनुसार मात्र 23 रूपये वार्षिक सिंचाई विभाग को बतौर कर देना पड़ता था। इसके बदले पानी आपूर्ति तथा नहर की उड़ाही की जिम्मेदारी सरकार की थी। यह बाधित है अब। पैसा उतना ही लगता है। सौ साल पुराना दर क्योंकि समझौता अनुसार जब तक यह उद्योग चलेगा पैसा नहीं बढ़ाया जा सकता। पानी अब चार महीने ही मिल पाता है।