उलझ गए सुख की भरनी से दुख के ताने-बाने
रक्ताभ ध्वज पर उकेरे गए हनुमानजी की पूंछ नीचे की ओर लटक रही और अग्र भाग ऊपर की ओर है। संकट के इस दौर में मुद्रण करने वाले कलाकार की संभवत कोई अभिलाषा रही हो। हनुमानजी संकटमोचक हैं और उनकी उर्ध्वगामी तस्वीर ऐसी प्रतीत हो रही जैसे कि वे सूर्य देव से धरती पर अवतरण का आग्रह कर रहे।
विकाश चन्द्र पाण्डेय, गया
रक्ताभ ध्वज पर उकेरे गए हनुमानजी की पूंछ नीचे की ओर लटक रही और अग्र भाग ऊपर की ओर है। संकट के इस दौर में मुद्रण करने वाले कलाकार की संभवत: कोई अभिलाषा रही हो। हनुमानजी संकटमोचक हैं और उनकी उर्ध्वगामी तस्वीर ऐसी प्रतीत हो रही जैसे कि वे सूर्य देव से धरती पर अवतरण का आग्रह कर रहे। फल्गु के तट पर अवस्थित दक्षिण मुखी मंदिर में श्रद्धालुओं ने नए ध्वज स्थापित कर दिए हैं, जो अनवरत लहरा रहे। ललाट पर छलक आई पसीने की बूंदों को अंगुलियों से काछते हुए कन्हैया प्रसाद सायास हुलस पड़ते हैं। प्रभु राम की कृपा है। सूर्य देव के इस ताप में कोरोना का झुलस जाना तय है। इन दिनों सूरज की किरणें लगातार तेज होती जा रहीं। सब्जियों पर पानी की फुहारें छिड़कते हुए रमेश ने नाक-मुंह पर बंधे गमछे को उतार दिया है। इस इत्मीनान के साथ कि भरी दोपहर के इस वीराने में कोरोना भटकने की जहमत भी नहीं उठा सकता। एहतियात के बाबत छेड़े जाने पर रमेश की मुस्कुराहट कुटिल हो जाती है। साहब! गया से मानपुर पहुंचने के पहले फल्गु को लांघना पड़ता है। अभी आप उसमें पांव तो रखिए। झुलस जाएंगे। कोरोना तो वैसे भी बड़ा नाजुक मिजाज है! अभिशप्त फल्गु से जुड़ी गया की एक पौराणिक पहचान है और मुनाफे में उसका बालू है। नदी में पानी नहीं होने का फायदा यह हुआ कि तटों पर बस्तियां आबाद हो गई। उन बस्तियों में इन दिनों उदासी पसरी हुई है और थोड़ी-बहुत जो जगह बच गई है, उसमें गंदगी। रामदेव की आवाज इस कारण तल्ख हो जा रही, क्योंकि नगर निगम वाले गया की मुख्य सड़कों से आगे नहीं बढ़ पाते। साफ-सफाई की अच्छी तस्वीरें वहीं बन पाती हैं। अच्छी तस्वीरों में पटवा टोली भी शुमार हो सकती है। हाथ की दसों अंगुलियों को एक-दूसरे में फंसाकर अगर आप हथेलियां आपस में सटा लें तो पटवा टोली की तस्वीर बन जाती है। एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था गलियां और उनके बीच में खुलते हुए दरवाजे। बुनकरों की बस्ती है और सफाई नए कपड़े के जैसे। झाड़-पोंछकर चकाचक। बीच में इक्का-दुक्का दरख्त हैं, जिनसे छनकर आंगन में उतरने वाली धूप मुलायम हो जाती है। तुराज प्रसाद पटवा उर्फ नीना के घर में आंगन ही नहीं। नब्बे वर्ग फीट का दड़बा है और फिलहाल चार लोगों का कुनबा। भीतर दरवाजे के ऊपर अंजना की तस्वीर टंगी है, जिसकी हत्या इस परिवार को अंतहीन दुख दे गई है। जुबान खोलने से पहले नीना हाथ जोड़ लेते हैं। एक आंख में खौफ और दूसरे में बेबसी साफ झलक रही। इन दिनों बेकार बैठे हैं और फुर्सत में अंजना की यादें कलेजे में हूक उठाए जाती हैं। पेट काटकर बचाए गए कुछ रुपये थे और मददगार बस्ती वालों से मिले आटा-आलू। जैसे-तैसे चूल्हा जल रहा। चूल्हे तो इस बस्ती में अभी नहीं बुझे, लेकिन कुछ घरों को तंगहाली ने दबोच लिया है। कानपुर आइआइटी में दूसरे वर्ष के छात्र रोहित कुमार का मन घर में नहीं लग रहा। हॉस्टल में नाश्ता-खाना यहां से बेहतर मिलता है। उनकी बातों पर भाभी आरती देवी की आंखें टेढ़ी हुई जा रहीं। उमाशंकर प्रसाद बजा फरमा रहे। सारी दिक्कत कमाई की है। एक बुनकर की कमाई रोजाना तीन से छह सौ तक की है। उमेश प्रसाद पटवा बातों की कड़ी जोड़ते हैं। पिछले आठ-दस दिनों से करघे बंद पड़े हैं। लोरी बन चुकी उनकी आवाज सुनने के बुनकर बेचैन हैं। सच कहें तो रातों की नींद छूमंतर हो गई है। बेचैन बुनकरों की वह नई पीढ़ी भी है, जो देश-विदेश में अच्छी पगार पर काम रही। उमेश प्रसाद पटवा के दोनों बेटे आइआइटियन हैं। बड़ी बहू आइआइटी से रिसर्च कर रही और दूसरी मेडिकल की पढ़ाई। इन तंग गलियों में मेधा ऐसे लहलहाती है। रोहित बताते हैं कि एक हाथ में करघा और दूसरे में कलम। हम लोगों को यही माहौल मिला और इसी माहौल से कामयाबी। इस बस्ती ने अब तक डेढ़ सौ से अधिक आइआइटियन दिए हैं। आज करघे बंद हैं तो उनकी कलम की कमाई से आस-पड़ोस के गरीबों का पेट भी पल रहा। बिरादरी तक राहत पहुंचाने का बीड़ा बुनकर बुनकर आरोग्य संघ ने उठाया है। प्रचार-प्रसार से दूर आइआइटियन आर्थिक मदद कर रहे।