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ज्ञान व शांति का अनूठा केंद्र महाबोधि मंदिर

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में राजकुमार सिद्धार्थ उरुवेल वन (वर्तमान का बोधगया) में तप कर संबोधि लाभ प्राप्त कर बुद्ध कहलाए थे। इसकी स्मृति में सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में ज्ञान प्राप्ति स्थल पर चिकने बलुआ पत्थर से वज्रासन की स्थापना की।

By JagranEdited By: Published: Wed, 17 Apr 2019 09:08 PM (IST)Updated: Wed, 17 Apr 2019 09:08 PM (IST)
ज्ञान व शांति का अनूठा केंद्र महाबोधि मंदिर
ज्ञान व शांति का अनूठा केंद्र महाबोधि मंदिर

विनय कुमार मिश्र, बोधगया :

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ईसा पूर्व छठी शताब्दी में राजकुमार सिद्धार्थ उरुवेल वन (वर्तमान का बोधगया) में तप कर संबोधि लाभ प्राप्त कर बुद्ध कहलाए थे। इसकी स्मृति में सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में ज्ञान प्राप्ति स्थल पर चिकने बलुआ पत्थर से वज्रासन की स्थापना की।

भगवान बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति का साक्षी रहा महाबोधि मंदिर आज विश्व धरोहर में शामिल हो चुका है, जहां देश-विदेश से लोग पर्यटन के लिए आते हैं। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी शुंग काल में इसके चारो ओर रेलिंग बनाई गई। विभिन्न कालखंडों में महाबोधि मंदिर का जीर्णोद्धार कई बार किया गया।

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2002 में विश्वदाय धरोहर में शामिल

यूनेस्को की 26 वीं बैठक में 27 जून 2002 को महाबोधि मंदिर को विश्वदाय धरोहर की सूची में शामिल करने की विधिवत घोषणा की गई। विश्वदाय धरोहर की सूची में उस वक्त शामिल होने वाला यह बिहार का पहला और देश का 23 वां धार्मिक स्मारक था।

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देखरेख की व्यवस्था समिति के हवाले

केंद्र सरकार ने समर्पण समारोह आयोजित कर बोधगया के विकास के साथ-साथ मंदिर की संरक्षा और सुरक्षा के लिए महाबोधि मंदिर प्रबंधकारिणी समिति को विधिवत रूप से इसे सौंपा था। 23 अप्रैल 2005 को यूनेस्को के दो सदस्यीय शिष्टमंडल ने बोधगया आकर मंदिर का भौतिक सत्यापन किया था। पुन: 24 फरवरी 2011 को यूनेस्को का चार सदस्यीय दल बुद्धभूमि पहुंचा।

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पुरातात्विक पक्ष को अक्षुण्ण रखना जरूरी

दल के सदस्यों ने न सिर्फ मंदिर परिसर, बल्कि आसपास के क्षेत्रों का भ्रमण किया। दल के नेतृत्वकर्ता जींग फेंग ने कहा था कि यहां के निवासियों की आर्थिक जीवनशैली, संस्कृति के साथ-साथ सामाजिक परंपरा की अनदेखी कर क्षेत्र का विकास करना संभव नहीं है। बोधगया का विकास पुरातात्विक व धार्मिक पक्ष को अक्षुण्ण रखते हुए संभव है।

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उत्कृष्ट है 170 फीट ऊंचा मंदिर

170 फीट ऊंचा महाबोधि मंदिर अपनी बनावट के कारण उत्कृष्ट आदर्श माना जाता है। इसके शिखर के चारों कोने पर छोटे-छोटे स्तूप स्थापित हैं। मंदिर परिसर के दक्षिणी भाग में मुचलिंद सरोवर, साधना उद्यान व पश्चिम भाग में पवित्र बोधिवृक्ष और पश्चिम दक्षिणी कोण पर वटर लैंप हाउस दर्शनीय व पूज्यनीय है।

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शांति का अहसास कराता बोधिवृक्ष

राजकुमार सिद्धार्थ को जिस पीपल वृक्ष की छांव में तप के बाद संबोधि लाभ की प्राप्ति हुई थी, उसे बोधिवृक्ष की संज्ञा दी गई। इस वृक्ष के प्रति पूरे विश्व के बौद्ध समुदाय की आस्था जुड़ी है। हरेक बौद्ध श्रद्धालु इस वृक्ष की छांव में साधना को लालायित रहते हैं। वर्तमान का यह चौथा वृक्ष लगभग 135 वर्ष पुराना है, जिसे लार्ड कर्निघम ने वर्ष 1880 में श्रीलंका के अनुराधापुरम से मंगवाकर लगाया था।

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बोधिवृक्ष का भी है इतिहास

पहले बोधिवृक्ष को सम्राट अशोक की पत्नी तिस्सरक्षिता ने कलिंग युद्ध के पश्चात सम्राट के बौद्ध धर्म के प्रति बढ़ते लगाव के कारण कटवा दिया था। बाद में सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा के हाथों वृक्ष की जड़ श्रीलंका भेजा। इसे वहां अनुराधापुरम में लगाया गया। बोधगया में बोधिवृक्ष की जड़ से निकले दूसरे वृक्ष को बंगाल के तत्कालीन शासक शशांक ने 602-620 ई. में बौद्ध धर्म के अस्तित्व को समाप्त करने के उद्देश्य से कटवा दिया। तीसरा वृक्ष भी जड़ से निकला था, जो लार्ड कर्निघम द्वारा खुदाई के दौरान 1876 में प्राकृतिक आपदा का शिकार हो गया था। चार साल बाद कर्निघम ने श्रीलंका से जड़ मंगवाकर यहां लगवाया।

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मंदिर का गुंबद है स्वर्ण आच्छादित

महाबोधि मंदिर के 170 फीट ऊंचे शीर्ष पर लगा गुंबद स्वर्ण आच्छादित है। इस पर थाईलैंड के राजा व श्रद्धालुओं के सहयोग से 289 किग्रा सोने से गुंबद बनाया गया। इसकी हर पांच वर्ष पर साफ-सफाई कराई जाती है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। शिवलिंग का उपरी हिस्सा जीर्णोद्धार काल में खंडित हो गया था। किवदंती है कि गर्भगृह में स्थापित भगवान बुद्ध की प्रतिमा की दृष्टि शिवलिंग पर पड़ती है।

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स्थापत्य कला का अनूठा संगम

बोधगया में स्थापत्य कला का अनूठा संगम है। यहां मिनी व‌र्ल्ड टूर का भी अहसास होता है। यहां विश्व के विभिन्न बौद्ध देशों के मंदिर स्थापित हैं, जो संबंधित देशों की कलाकृति को दर्शाते हैं। मंदिर की बाहरी व आंतरिक साज-सज्जा मनमोहक है। इसमें जापान, भूटान, थाईलैंड, म्यांमार, तिब्बत आदि देशों के मंदिर शामिल हैं।

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सुजाता स्तूप में बौद्धकालीन इतिहास

निरंजना नदी के पूर्वी तट पर स्थित सुजाता स्तूप बौद्धकालीन इतिहास को अपने में संजोए हुए है। पालवंश कालीन यह स्तूप भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा खुदाई में खंडित निकला था। इसका जीर्णोद्धार कर आकर्षक स्वरूप दिया गया है। स्तूप की ऊंचाई लगभग 50 फीट है। मान्यता है कि राजकुमार सिद्धार्थ को पायस (खीर) खिलाकर मध्यम मार्ग का अनुगामी बनने को प्रेरित करने वाली तत्कालीन सेनानी ग्राम (वर्तमान का बकरौर) की महिला सुजाता का घर इस स्तूप के नीचे दबा है।

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मुचलिंद सरोवर के विकास की गति धीमी

महाबोधि मंदिर से लगभग डेढ़ किमी दक्षिण में मोचारीम गांव स्थित प्राचीन मुचलिंद सरोवर है, जो आज भी विकास और जीर्णोद्धार की राह देख रहा है। सरकार के स्तर से इसके विकास की योजना बनी। चारदीवारी का निर्माण कराया गया। बाद में थाईलैंड के बौद्ध भिक्षु ने सरोवर के विकास का जिम्मा उठाया, लेकिन विकास कार्य को गति नहीं मिल पाई है। मान्यता है कि ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध छठा सप्ताह ध्यान में व्यतीत कर रहे थे। तभी आंधी और वर्षा से नागराज मुचलिंद ने उनकी रक्षा की थी।

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घोर तप की साक्षी है प्रागबोधि गुफा

बुद्धत्व प्राप्ति के लिए राजकुमार सिद्धार्थ के घोर तप का साक्षी रही है प्रागबोधि गुफा। ढुंगेश्वरी पर्वत श्रृंखला की इस गुफा में राजकुमार सिद्धार्थ ने छह वर्षो तक चावल का छह दाना ग्रहण कर कठिन तप किया था। यहीं उनका शरीर कंकाल रूपी हुआ था। पर्वत के शिखर पर सात स्तूप स्थापित हैं। गतेक वर्षो से बौद्ध महोत्सव के अवसर पर प्रागबोधि गुफा से ज्ञान यात्रा निकाली जा रही है।


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