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Rising India: कोरोना योद्धा अपने ‘गांवों’ में प्रज्ज्वलित कर रहे आशाओं के दीप

कोरोना संक्रमण काल के दौरान लोग बड़ी संख्या में महानगरों से अपने गांव लौट आए थे। सवाल यह भी था कि रोजी-रोजगार का क्या होगा? गांव-गरीब-श्रमिक-किसान विपदा से जमकर जूझे और हर चुनौती को पार कर नया अर्थतंत्र विकसित करने में जुट गए।

By Manish MishraEdited By: Published: Fri, 04 Dec 2020 06:00 AM (IST)Updated: Fri, 04 Dec 2020 06:20 AM (IST)
Rising India: कोरोना योद्धा अपने ‘गांवों’ में प्रज्ज्वलित कर रहे आशाओं के दीप
गया के टिकारी में खेत में ट्रैक्टर से जोताई कर रहे किसान। जागरण आर्काइव

टीम जागरण, गया। कोरोना संक्रमण काल के दौरान लोग बड़ी संख्या में महानगरों से अपने गांव लौट आए थे। सवाल यह भी था कि रोजी-रोजगार का क्या होगा? गांव-गरीब-श्रमिक-किसान विपदा से जमकर जूझे और हर चुनौती को पार कर नया अर्थतंत्र विकसित करने में जुट गए। रास्ता ढूंढा, हालात से लड़कर आगे बढ़े और एक नई व्यवस्था भी बना ली। पढ़ें गया से जागरण संवाददाता कौशलेंद्र कुमार और जमुई से अरविंद कुमार सिंह की रिपोर्ट। 

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कभी जूता कंपनी में काम करने वाले अशोक आज खुद जूता-चप्पल बनाने वाली एक यूनिट के मालिक हैं। इनके साथ 25 प्रवासी भी काम कर रहे हैं। हर रोज ये 200 जोड़ी मेडिकेटेड (मधुमेह रोगियों व दिव्यागों के लिए) और सामान्य जूते-चप्पल तैयार कर रहे हैं। हर महीने इन्हें 50 हजार रुपये की आमदनी हो रही है। जमुई, बिहार के मटिया मोहनपुर गांव निवासी 34 साल के अशोक दास चेन्नई में फुटवियर बनाने वाली कंपनी में 19 हजार रुपये मासिक पर काम करते थे। लॉकडाउन में काम बंद होने पर वे घर लौट आए। प्रवासियों के लिए चलाई जा रही योजना से इन्हें सरकार द्वारा पांच लाख रुपये की मशीन दी गई है। साथ ही, एक लाख रुपये कच्चा माल खरीदने के लिए भी दिए गए। अब धीरे-धीरे अच्छा बाजार भी मिलने लगा है। 

(मोहनपुर गांव में मेडिकेटेड जूतों का निर्माण करते अशोक दास)

श्रम का एक बड़ा हिस्सा बिहार से आता है। गया जिले के शेरघाटी अनुमंडल में भी ऐसे कई गांव हैं, जिन्होंने आपदा को अवसर में बदलने का भरसक प्रयास किया और अपने स्तर पर सफल भी रहे। इन्हीं में ढावचिरैया पंचायत का सोनडीहा गांव भी है। कोरोना काल में बाहर रह रहे लोग बड़ी संख्या में जैसे-तैसे वापस आ गए थे। इन्हीं में जेठू भी हैं। कोलकाता में टैक्सी चलाते थे। वे कहते हैं- अब हमनी के कहीं जाय के जरूरत न हई...। यहीं खेती कर रहे हैं। 

जेठू ने बताया कि यहां दो दर्जन से अधिक घरों में प्रवासी लौटकर आए थे। अब अधिकांश शहरों को लौट चुके हैं। लेकिन जो रह गए हैं, उन्होंने खेती-बाड़ी से लेकर रोजगार तक का हुनर विकसित कर लिया है।

ट्रैक्टरों और कृषि उपकरणों की खरीदारी बढ़ी

गांवों का अर्थशास्त्र थोड़ा बदल गया है। जहां कमाई का कोई जरिया समझ नहीं आता था, वहीं चार पैसे आने लगे हैं। तथ्य भी इस बात की पुष्टि करते हैं। गया स्थित सिद्धार्थ ट्रैक्टर्स के मालिक सिद्धिनाथ बताते हैं कि कोरोना के बावजूद इस साल ट्रैक्टरों और कृषि उपकरणों की खरीदारी कहीं अधिक हुई है। मौजूदा दौर को देखते हुए इस साल नवंबर तक अच्छी बिक्री हो चुकी है। स्पष्ट है कि शहरों से जो श्रम गांवों को लौटा था, उसने गांव के अर्थतंत्र को नई गति देने का काम कर दिखाया। 

(रेणु देवी, उप मुख्यमंत्री, बिहार)

बिहार की उप मुख्यमंत्री रेणु देवी ने कहा, 'कोरोना काल एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया। बिहार में इस दौरान प्रवासी बड़ी संख्या में लौटकर आए। यहां भी उन्होंने अपने हौसले से नई शुरुआत की। सरकार भी पूरी मदद कर रही है। सकारात्मक सोच से ही हमेशा नए समाज का निर्माण होता है, बाधाओं से लड़ने का हौसला मिलता है, इसमें दैनिक जागरण ने भी अहम योगदान दिया है।'


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