सामाजिक-राजनीतिक चेतना की गवाही दे रहे टूटते पत्थर
चुनावी गर्मी चढ़ चुकी है और गया में धूप भी काफी तीखी हो चली है। तापमान अभी 32-33 डिग्री सेल्सियस के आसपास। यह 43-44 डिग्री तक भी जाएगा।
अश्विनी, गया
चुनावी गर्मी चढ़ चुकी है और गया में धूप भी काफी तीखी हो चली है। तापमान अभी 32-33 डिग्री सेल्सियस के आसपास। यह 43-44 डिग्री तक भी जाएगा।
हां! पहाड़ी क्षेत्र की इस तीखी धूप में भी मजदूर छेनी-हथौड़े से पत्थर तोड़ते मिल जाएंगे। इन पत्थरों में यहां की सामाजिक-राजनीतिक चेतना को भी पढ़ा जा सकता है।
1960 का दशक! इन्हीं टूटते पत्थरों के बीच संविधान में निहित 'अधिकार' और 'कर्तव्य' की वह परिभाषा भी साकार हुई, जो भारतीय लोकतांत्रिक ढांचे की जान है। पत्थरों पर हथौड़े चलाने वाले सामान्य मजदूर की पहचान भर लिए दो नाम। एक गहलौर के दशरथ मांझी, दूसरी बाराचट्टी की भगवती देवी। 1968 का वह दौर। दशरथ मांझी अकेले दम पहाड़ तोड़कर लोगों के लिए रास्ता बना रहे थे तो बाराचट्टी में भगवती देवी बाल-बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए हथौड़े चला रही थीं। एक बात दोनों में समान थी। समाज को जागरूक करना। उस दौर में (कमोवेश आज भी) पेट के लिए चूहों के पीछे भाग रहा अनुसूचित जाति के निचले पायदान से ताल्लुक रखने वाला वह समाज जैसे चुपचाप करवट ले रहा था। दशरथ मांझी जुनून का प्रतीक बन पूरी दुनिया में छा गए और भगवती देवी विधायक बनीं। ये दोनों घटनाएं दो जगहों पर साथ-साथ हुई। बाद में लालू प्रसाद ने भगवती देवी को टिकट दिया और वे गया की सांसद भी बनीं। सियासत के गलियारों ने उन्हें पहचान लिया था। दशरथ मांझी सामाजिक-राजनीतिक केंद्र में बाबा दशरथ मांझी हो गए, जिन्हें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी पर बिठाया था और खुद सामने बैठे। सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में ये बड़ी घटनाएं थीं, यह बदलाव का एक नया मंजर था।
हालांकि, विकास के पैमाने पर आजादी के बाद से ही उपेक्षित गया आज भी देश के अति पिछड़े जिलों में शामिल है। इस बार स्वास्थ्य क्षेत्र में कुछ बेहतर प्रदर्शन ने तीसरा पुरस्कार दिला दिया है। लेकिन, चिलचिलाती धूप में आज भी महिलाएं हर रोज पानी के लिए दो-दो, चार-चार किलोमीटर का रास्ता पांव पैदल नापती हैं। अनुसूचित जाति की बड़ी तादाद है। विभिन्न जाति-समुदाय के लोगों में चार लाख से ज्यादा खेतिहर मजदूर। दस लाख के करीब की आबादी छह माह तक रोजगार पाने वाली या कोई काम-धंधा करने वाली, पर चेतना के स्तर पर जागरूक। बेलागंज के रास्ते खेत में मजदूरी कर रहीं शामली देवी कहती हैं, 'एके टेम खाएंगे, पर बच्चा को पढ़ाना जरूरी है न..।' यह 'एके टेम' (टाइम) चेतना का पर्याय ही है। इसे सिर्फ सियासत के कुनबाई समीकरणों से साध पाना बहुत आसान नहीं होगा। बाराचट्टी, इमामगंज जैसे नक्सल प्रभाव वाले क्षेत्रों की लड़कियां अच्छी तादाद में पुलिस सेवा में गई हैं। कड़ी धूप में पहाड़ों के बीच रोजी-रोटी की मशक्कत आज भी है, पर उसके साथ-साथ सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में सुबह-सुबह दौड़ लगाने वाली लड़कियां भी। उन्हें पुलिस या सेना में जाना है। मुफलिसी, पिछड़ेपन और मुश्किलों के बीच यह बदलाव का एक नमूना भर है। बाबा स्व. दशरथ मांझी खुद निरक्षर थे, पर शिक्षा के लिए सबको जागरूक करते रहे। लक्ष्मी उन्हीं की पोती है, स्नातक कर रही हैं। परिवार में पहली बार किसी ने कॉलेज की चारदीवारी देखी। वे कहती हैं, आंगनबाड़ी में बच्चों को भी पढ़ाते हैं। हथौड़े और पत्थरों के बीच से निकलती पीढि़यां अब सोच के इस पायदान पर आ खड़ी हुई हैं। चुनाव के सियासी आंकड़ों में जो भी समीकरण बनते-बिगड़ते रहें, कारगर वही होगा, जो इस सोच के साथ एकाकार हो सकेगा।