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पितरों के प्रसन्न होने पर सभी देवता भी होते हैं प्रसन्न

आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से अमावस्या पर्यन्त पितृपक्ष में श्राद्ध तर्पण आदि का विधान है। हिदू धर्मग्रंथों में श्राद्ध आदि की विवेचना अत्यन्त विस्तार के साथ की गई है। श्राद्ध की मूलभूत विवेचना यह है कि प्रेत और पितर के निमित उनकी आत्मतृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।

By JagranEdited By: Published: Sat, 14 Sep 2019 02:17 AM (IST)Updated: Sat, 14 Sep 2019 02:17 AM (IST)
पितरों के प्रसन्न होने पर सभी  देवता भी होते हैं प्रसन्न
पितरों के प्रसन्न होने पर सभी देवता भी होते हैं प्रसन्न

गया । आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से अमावस्या पर्यन्त पितृपक्ष में श्राद्ध, तर्पण आदि का विधान है। हिदू धर्मग्रंथों में श्राद्ध आदि की विवेचना अत्यन्त विस्तार के साथ की गई है। श्राद्ध की मूलभूत विवेचना यह है कि प्रेत और पितर के निमित उनकी आत्मतृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए, वह श्राद्ध है। श्रद्धया दीयतेतत्श्राद्धय्।

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आयु: पूजां धनं विधां स्वर्ग सुखानि च।

प्रयच्छति तथा राज्यं पितर: श्राद्ध तर्पिता।।

अपने पितृ दिवस पर श्राद्ध एवं तर्पण कराएं। पितरों की आराधना दो प्रकार से हो सकती है। एक तिल अर्पण अर्थात् जल के साथ तिल मिलाकर पितरों के नाम से जल में छोड़ना, इसी को तिलांजलि कहते हैं। दूसरे प्रकार का श्राद्ध हवन कर्म के साथ होता है। पितरों के लिए हवन कुंड में अन्न, घी आदि वस्तुएं मंत्रोच्चारण के साथ डाली जाती है। इसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं। प्रतिवर्ष 13 ऐसे संदर्भ आते हैं, जिनमें पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा गया है। ये समय हैं-प्रतिमास की अमावस्या, एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य संक्रांति का दिन, सूर्य ग्रहण अथवा चंद्र ग्रहण का समय और माघ मास कृष्णपक्ष की अष्टमी का दिन। इस तरह के 13 अवसर बताएं गए हैं। इनमें पितृ पक्ष का महत्व अधिक है। हमारी संस्कृति में माता-पिता एवं गुरु को भी विशेष श्रद्धा एवं आदर दिया जाता है, उन्हें देव तुल्य माना जाता है।

'पितरं प्रीतिमापन्ने प्रियन्ते सर्वदेवता:'

अर्थात पितरों के प्रसन्न होने पर सारे ही देवता प्रसन्न हो जाते हैं। महालय श्राद्ध 17 दिनों तक होता है। अनन्त चतुदर्शी से इसका प्रारंभ होता है। प्रथम पूनम को विष्णु का श्राद्ध कर्म संपन्न होते हैं। इस वर्ष 5-18 सितंबर तक पितृ श्राद्ध का समय है।

पिता के जिस शुक्राणु के सथ जीव माता के गर्भ में जाता है, उसमें 84 अंश होते हैं, जिसमें से 28 अंश तो शुक्रधारी पुरुष के स्वयं के भोजनादि से उपार्जित होते हैं और 56 अंश पूर्व पुरुषों के रहते हैं। उनमें से 21 अंश उसके पिता, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामह, 5 अंश चतुर्थ पुरुष, 3 पंचम पुरुष के और 1 षष्ठ पुरुष के होते हैं। इस तरह सात पीढि़यों तक वंश के सभी पूर्वजों के रक्तकी एकता रहती है। जिन पितरों की जीवात्मा के भीतर 10 से ज्यादा अंश होती है हम उनके ऋणी होते हैं। इस तरह पिंडदान मुख्यत: तीन पीढि़यों तक का करना आवश्यक होता है। यह ऋण उतारने के लिए श्राद्ध कर्म करना हमारा धर्म है। पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना हमारा क‌र्त्तव्य है।

प्रमोद कुमार सिन्हा

वास्तुविद एवं ज्योतिषाचार्य


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