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यहां सिकरहना की कोख से नहीं उबर पाया आदमी..

पश्चिमी चंपारण लोकसभा क्षेत्र स्थित नरकटिया विधानसभा के बंजरिया प्रखंड के पचरूखा पश्चिमी पंचायत स्थित लमौनिया गांव।

By JagranEdited By: Published: Mon, 01 Apr 2019 08:23 AM (IST)Updated: Mon, 01 Apr 2019 08:23 AM (IST)
यहां सिकरहना की कोख से नहीं उबर पाया आदमी..
यहां सिकरहना की कोख से नहीं उबर पाया आदमी..

मोतिहारी। पश्चिमी चंपारण लोकसभा क्षेत्र स्थित नरकटिया विधानसभा के बंजरिया प्रखंड के पचरूखा पश्चिमी पंचायत स्थित लमौनिया गांव। सुविधाएं आधी-अधूरी। बुजुर्गो को वृद्धापेंशन नहीं। खेतों में सिचाई के साधन नहीं। गांव में एक प्राथमिक विद्यालय है, जो गांव के बच्चों को नैतिक, सामाजिक व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने में जुटा है। इससे आगे मध्य विद्यालय की पढ़ाई करने के लिए बच्चों को दो किलोमीटर दूर झखियां जाना होता है। वहीं मैट्रिक व इंटर की पढ़ाई के लिए छात्र-छात्राओं को पंचायत स्थित एक मात्र प्लस टू स्कूल मोखलिसपुर जाने के लिए पांच किलोमीटर की दूरी तय करनी होती है। दूरी की वजह से जहां कई बेटियों की पढ़ाई छूट गई है, जो आज अपने घरों में बैठी मिली। गांव में प्रवेश करते लमौनिया मठ व आजादी के पूर्व से लगने वाले पशु मेला स्थल मिला। मठ परिसर में दो-चार लोग मिले, जो महायज्ञ की तैयारी में जुटे थे, तो कुछ अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त दिखे। यहां सड़क जर्जर मिली। पछुआ हवा की झोंकों से धूल उड़ते मिले। गांव में जब प्रवेश हुआ तो कुछ झोपड़ियां मिली, लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़े कुछ पक्के मकान के साथ विकास भी दिखा। गांव में पीसीसी सड़क निर्माण होते मिला और यही मिले 74 वर्षीय रघुवीर यादव। वे थोड़ा कम सुनते हैं और मोतियाबिद से भी पीड़ित हैं। बाढ़ में मठ के तालाब की आट बनती है शरणस्थली रामचरण व रघुवीर बताते हैं कि वर्ष 1974 के बाद 2017 में आई प्रलयंकारी बाढ़ में काफी नुकसान हुआ। गांव के कुछ लोग जैसे-तैसे अपने सगे-संबंधियों के शरण लेने चले गए। वहीं अन्य लोग अपने परिवार व बच्चों के साथ-साथ मवेशियों को मठ के पोखरा स्थित बांध पर शरण लिए हुए हैं। सरकारी सहायता के नाम पर तब कुछ नहीं मिल पा रहा था। पानी कम हुआ तो कुछ राहत सामग्री पहुंची। वहीं पानी उतरने के बाद क्षतिग्रस्त मकान की मरम्मत को कुछ पैसे मिले। सड़क, बिजली, शिक्षा आदि आज भी यहां की जरूरत बनी हुई है। हालांकि, गांव में सड़क व टोलों में बिजली पहुंचाने की जद्दोजहद जारी है और आने वाले दिनों में इसकी सूरत संवर जाने की उम्मीद गांव के लोगों को है। बाढ़ के दौरान लोगों का अनुमंडल मुख्यालय से संपर्क टूट जाता है। लोग गांव से पलायन कर किसी ऊंचे स्थान या स्कूल की छतों का सहारा लेते हैं। चारा के अभाव में मवेशियों को काफी परेशानी होती है। संपर्क भंग होने के कारण आवश्यक वस्तुओं की कमी होने लगी है। मेला में पहुंचते थे राज्य भर से पशुपालक

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लमौनिया मठ पर बैठे विगन यादव, रामनरेश आदि ने बताया कि यहां आजादी के पूर्व से पशु मेला लगता आ रहा है। हम जब बच्चे थे तब बेतिया, बगहा, मुजफ्फरपुर, बक्सर, गोपालगंज, सिवान सहित अन्य राज्यों से भी पशुपालक पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए मेला में पहुंचते थे। धीर-धीरे पशुओं पर किसानों की निर्भरता कम हुई, तो मेला में आने वाले पशुपालकों की संख्या में भी कम हो गई, लेकिन आज भी मेला का आयोजन हर साल होता है। मठ के पुजारी बताते हैं कि वर्ष 2017 के चैत माह से मठ परिसर में महायज्ञ पूजा का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष की भी तैयारी मठ परिसर में दिखी। पांच अप्रैल को होने वाली शोभा यात्रा की तैयारी में कमेटी के सदस्य जुटे दिखे। विकराल बाढ़ का कहर टूटा है, जनप्रतिनिधि की कौन कहे विधाता ही रूठा है.. मलौनिया निवासी स्व. रामधनी यादव व बुधिया देवी के 101 वर्षीय पुत्र रामचरण यादव बताते हैं कि जब-जब विकराल बाढ़ का कहर टूटता है, जनप्रतिनिधि की कौन विधाता ही रूठा है। इनकी दोनों आंख मोतियाबिद के शिकार हैं। ये बिना सहारे कोई काम नहीं कर पाते। बातचीत के दौरान श्री यादव के मुख्य से यह शब्द निकल रहे थे। उनकी बातों में पीड़ा साफ छलक रही थी। उन्होंने बताया कि प्रल्यंकारी बाढ़ में वर्ष 1974 में चार व 2017 में दो लोगों की मौत नाव दुर्घटना में हो गई। लगभग 135 लोगों के घर क्षतिग्रस्त हो गए। बाद में पैसा मिला, लेकिन नुकसान के हिसाब से नाकाफी रहा। वहीं प्रलयंकारी बाढ़ में गांव के छह युवाओं की मौत डूबने से हो गई। 1950 में नौकरी छोड़ घर आ गए थे रामचरण रामचरण बताते हैं कि वे 1940 में सेना के पलटन में शामिल हुए थे। देश में आजादी की जंग छिड़ी थी। हर तरफ मारकाट चल रही थी। सेना के जवानों के पास हथियार नहीं थे। लड़ाई के मैदान में उतरने के लिए। उस समय वे अपने फैजाबाद के साथी के साथ जम्मू-कश्मीर में तैनात थे। महात्मा गांधी व सरदार पटेल लगातार उस समय के राजा हरि सिंह से मिलने पहुंचते थे। कश्मीर में उस समय भी तनाव का माहौल था। इस बीच मैं और मेरे दोस्त ने सेना छोड़ने का निर्णय लिया और मेरठ डिपो को पत्र लिखा। प्रक्रिया में छह माह लगे और अंतत: हमारा आवेदन स्वीकृत हो गया, और हम अपने-अपने घर लौट गए। उस समय सेना में दिन में भात व रात में रोटी मिलती थी।


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