बुनकरों को रोजी-रोटी की तलाश
दरभंगा। महात्मा गांधी के सपनों के तहत स्थापित खादी वस्त्र का कारोबार जिले में दम तोड़ रहा है। खादी ग्रामोद्योग संघ क्षेत्र से विलुप्त होने लगा है।
दरभंगा। महात्मा गांधी के सपनों के तहत स्थापित खादी वस्त्र का कारोबार जिले में दम तोड़ रहा है। खादी ग्रामोद्योग संघ क्षेत्र से विलुप्त होने लगा है। खादी वस्त्र निर्माण के कारण लोगों को विरासत में बुनकर का धंधा मिला। लेकिन, वर्ष 1980 से यहां के बुनकर उपेक्षित हैं। नतीजा, लोग इस धंधे को छोड़कर दूसरे प्रदेशों में मजदूरी करने को विवश है।
कोरोना महामारी के डर से सभी लोग परदेश से वापस अपने गांव आए । लेकिन, घर लौटे बुनकरों को गांव में भी काम नहीं मिल रहा है। ऐसी स्थिति में बुनकरों को दो वक्त की रोटी मिलना मुश्किल हो गया है। इन परिस्थिति से उबरने के लिए बुनकर आंदोलन की रूप रेखा तय करने में लगे हैं। इसके लिए सिरहुल्ली गांव में रघुनंदन तांती के नेतृत्व में बुनकरों की बैठक हुई। इसमें बदहाली को लेकर सभी ने सरकार के खिलाफ नाराजगी व्यक्त की। जिलाधिकारी सहित संबंधित मंत्रियों से बुनकरों ने रोजगार की मांग की है। कहा कि भौतिकवादी दुनिया में खादी वस्त्रों की मांग नहीं के बराबर है। कोरोना से लड़ने के लिए केंद्र सरकार लोगों के लाभार्थ बीस लाख करोड़ की योजना लाई है। लेकिन, इसमें बुनकरों के लिए कोई योजना शामिल नहीं है। ऐसी स्थिति में गांव के 165 बुनकर परिवारों के सामने उत्पन्न रोजी-रोटी की समस्या कैसे दूर होगी। पेट की भूख ने लोगों को इस महामारी के बीच ही परदेश जाने के लिए विवश कर दिया है। इससे निपटने के लिए गांव में पावरलूम उद्योग लगाने की मांग की है। साथ ही एक माह के प्रशिक्षण के साथ इस उद्योग से जुड़े कच्चा माल मुहैया कराने को कहा है। घर-घर मशीनें, फिर भी काम नहीं
बुनकर गौरीशंकर प्रसाद, मोती प्रसाद, राम शंकर प्रसाद, मनोज कुमार प्रसाद, रमेश कुमार प्रसाद, शतुध्न राउत, पवन प्रसाद, सोहन राउत, संजय प्रसाद, परशुराम प्रसाद आदि ने बताया कि सिरहुल्ली और पास के गांव मधुपुर बुनकरों के गांव के नाम से जाना जाता था। घर-घर सूत काटने एवं कपड़ा बीनने की मशीनें हैं। सड़क किनारे खादी की धोती की बिनाई की जाती थी। सभी बुनकर अपने तैयार माल को कमतौल खादी भंडार में बेच कर जीवन यापन करते थे। लेकिन, वर्ष 1980 में कमतौल खादी भंडार खंडहर में तब्दील हो गया। इसके बाद बुनकर उद्योग से जुड़े लोग अपने पुश्तैनी धंधे को छोड़ रोजी-रोटी के लिए प्रवासी बन गए हैं।