एक थीं दरभंगा राजघराने की बहू राजकिशोरी
दरभंगा। मिथिला की जान दरभंगा। दरभंगा की शान महाराज कामेश्वर सिंह। उनका परिवार और उनक
दरभंगा। मिथिला की जान दरभंगा। दरभंगा की शान महाराज कामेश्वर सिंह। उनका परिवार और उनके लोग। सबकी अलग-अलग पहचान। और सबकी अपनी-अपनी आदत। इन सबके बीच राजघराने की बहू कुमारी राजकिशोरी की पहचान अलग। उनकी शान अलग। आदत ऐसी कि महाराज भी उनकी आदत के कायल थे। महाराज यूं हीं उनके कायल नहीं हुए। इसके पीछे बड़ी वजह यह रही कि पूरी दुनिया में अपनी शान के लिए चर्चित राजघराने की यह बहू सादगी की प्रतिमूर्ति थीं। ब्याह के बाद जब पिता लक्ष्मीसागर निवासी उपेंद्रनाथ मिश्र के घर से दरभंगा महाराज के महल में आईं तो यहीं की होकर रह गईं। हर पल हर वक्त कुल की मर्यादा का ध्यान रखा और उसके अनुरूप ही काम किया। मंगलवार की सुबह जब शहर के लहेरियासराय बलभद्रपुर आवास से राजकिशोरी की अंतिम यात्रा निकली तो शहर के लोग कुछ इसी तरह की बातें करते मिले। राज परिवार के रिवाज के अनुरूप माधेश्वर महादेव मंदिर ( सिद्धपीठ श्यामा माई मंदिर) परिसर में जलती रानी की चिता के पास बैठे लोग उनकी सादगी की चर्चा करते नहीं अघा रहे थे। लोग कह रहे थे- सादगी की प्रतिमूर्ति थीं। कभी उनके अंदर अहंकार का प्रवेश नहीं हुआ। वक्त चाहे जितना भी बेरहम क्यों नहीं हुआ। कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
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आठ साल की उम्र में ही बन गईं थी राजघराने की बहू, अकेले बारात लेकर गए थे महाराज
लक्ष्मीसागर निवासी उपेंद्रनाथ मिश्र के घर की पुत्री के रूप में 11 दिसंबर 1940 को जन्मी राजकुमारी का ब्याह काफी कम उम्र में दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह के भतीजे युवराज जीवेश्वर सिंह के साथ 30 जनवरी 1948 को हुआ था। रानी के साथ शुरू से रहे महेशनारायण झा उर्फ मोहन झा बताते हैं - रानी से जो सुनते आए हैं, उसके मुताबिक उनका ब्याह महज आठ साल की उम्र में हो गया था। तब अकेले बारात लेकर गए थे महाराज कामेश्वर सिंह। जिस गाड़ी से महाराज गए थे उस गाड़ी को चलाकर ले गए थे उनके ससुर महाराज के भाई राजा बहादुर विशेश्वर सिंह। शादी के बाद जब ससुराल आईं तब से लेकर मृत्यु के वक्त तक राजघराने की मर्यादा का ध्यान रखा और उसकी रक्षा में लगी रहीं।
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वक्त ने ऐसी चाल चली कि पहुंच गईं महल से सामान्य घर में, बाद में अपना लिया एकांतवास वक्त ने भी राजकुमारी को अच्छे और बुरे दोनों ही दिन दिखाए। हालांकि, राजघराने की बहू होने के कारण इसका एहसास मात्र हुआ। परेशानी आई भी तो चली गई। मोहन झा बताते हैं - ब्याह के बाद राजभवन (नगरौना पैलेस) आईं। फिर महाराज के निधन के बाद जब उनकी वसीयत के मुताबिक युवराज जीवेश्वर सिंह को वह घर छोड़ना पड़ा। इसके बाद लंबा समय यूरोपियन गेस्ट हाउस में बीता। लेकिन, वक्त को कुछ और ही मंजूर था। इस गेस्ट हाउस को भी छोड़ना पड़ा। फिर लहेरियासराय के बलभद्रपुर में जमीन खरीद नया मकान बना और तब लेकर मौत के आने तक रानी वहीं रहीं।
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युवराज की मौत के बाद माधेश्वर श्मशानघाट राजघराने से पहुंचा रानी का शव
1980 में युवराज जीवेश्वर सिंह का निधन हुआ था। उनकी अंत्येष्टि राज परिवार की परंपरा के अनुसार माधेश्वर मंदिर परिसर स्थित श्मशानघाट में हुई थी। उसके बाद से राजघराने में किसी की मौत नहीं हुई थी। करीब बीस साल बाद इस श्मशान में पति के अंत्येष्टिस्थल के पास रानी राजकुमारी का शव पहुंचा। विधि-विधान के साथ उनकी अंत्येष्टि की गई। इस अवसर पर उनके नाती अमित उर्फ पप्पू भी मौजूद रहे।
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कुछ कहना चाहती थीं मां, कह ना सकीं रानी के निधन के पश्चात उनकी दो पुत्रियां कात्यायनी और देव्यायनी दोनों ही गहरे सदमे में हैं। अपने-अपने घरों में मां के निधन के शोक में डूबी बेटियों से कोई उनकी मां के बारे में पूछता तो बस एक ही जवाब मिलता कुछ न पूछिए। बड़ी बेटी कात्यायनी कहती हैं- मां पिताजी के निधन के बाद से एकांत में रहती थीं। जब भी बुलाया मिलने गई। साथ कुछ पल व्यतीत किए। बड़ी इच्छा थी कि नाती मुखाग्नि दे। लेकिन, यह हो न सका। उनके साथ रहनेवाले मोहन ने मुखाग्नि दी। छोटी बेटी कात्यायनी कहती हैं- मैं तो शादी के बाद से बाहर रहने लगी। लेकिन, मां को जब भी मेरी याद आई। उन्होंने मुझे बुलाया। वह कहती थीं- 'मुझे तुमको एक बात बतानी है।' लेकिन, यह हो न सका और अब मां हमारे बीच नहीं रहीं।
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जब भी धर्मयात्रा पर निकलीं तो महारानी के साथ राज परिवार से जुड़े लोग बताते हैं कि राजकुमारी ने कुल की मर्यादा का पूरा ध्यान रखा। जब भी घर से बाहर निकलीं तो महारानी के साथ ही निकलीं। सास-बहू के बीच के रिश्ते और उसकी नजाकत को समझा। कभी बे-वजह के खर्च नहीं किए और सीमित साधनों के बीच अपना जीवन गुजार दिया।