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पहले गांव के दो-चार मानिद लोग लेते थे अंतिम निर्णय

प्रत्याशी की बात तो दूर पहले लोग निर्वाचित जनप्रतिनिधि को चेहरे से भी नहीं पहचानते थे। गांव के मानिद लोग ही एमपी एमएलए थे।

By JagranEdited By: Published: Wed, 27 Mar 2019 01:12 AM (IST)Updated: Wed, 27 Mar 2019 01:12 AM (IST)
पहले गांव के दो-चार मानिद लोग लेते थे अंतिम निर्णय
पहले गांव के दो-चार मानिद लोग लेते थे अंतिम निर्णय

दरभंगा । प्रत्याशी की बात तो दूर पहले लोग निर्वाचित जनप्रतिनिधि को चेहरे से भी नहीं पहचानते थे। गांव के मानिद लोग ही एमपी, एमएलए थे। उन्हें साक्षी मानकर मतदाता वोट डालते थे। आजादी के बाद से अब तक के चुनाव में केवटी के बनौली गांव निवासी 94 वर्षीय मुक्ति भगत ने कई चीजों को बदलते हुए देखा है। कहते हैं कि पहले गांव के दो-चार लोग अंतिम निर्णय लेते थे। आज हर घर में अलग-अलग निर्णय लेकर मतदान करते हैं। कुछ मामलों में पहले की राजनीति बेहतर थी तो कुछ में अब की। अगर वर्तमान राजनीति में पहले की अच्छाई को जोड़ दिया जाए तो देश विश्व पर राज करेगा। 1952 से लेकर 1971 तक चुनाव लड़ने और मतदान करने की प्रक्रिया एक समान थी। चुनाव के दौरान कुछ पलों के लिए गांव में नेताजी आते थे और गांव के मजबूत और संपन्न लोग के यहां रुकते थे। पूरे गांव के लोग जुटते थे। बताया जाता था कि जो नेताजी आएं हैं, उनका फलां चुनाव चिह्न है। सभी इनके पक्ष में मतदान करेंगे। उपस्थित भीड़ से केवल सहमति की आवाज निकलती थी। नेताजी वापस चले जाते थे तो पलट कर अगले चुनाव में ही आते थे। विरोधी नहीं रहने से एकतरफा मतदान होता था। गांव के दो-चार लोग मतदान कर मतपेटी को बैलगाड़ी से एसडीओ के यहां भेज देते थे। काउंटिग के दौरान समर्थकों के लिए घड़ा में पानी जाता था। आम लोग किसी काम से जनप्रतिनिधि के यहां जाना जरूरी नहीं समझते थे। सभी काम गांव के ही मानिद लोग कर देते थे। स्थानीय थाना, बीडीओ भी उन्हें ही एमएलए और एमपी मानते थे। बात नहीं मानने पर पदाधिकारियों का तबादला करा दिया जाता था। वर्ष 1972 के उप चुनाव में परिस्थिति बदली। कई युवाओं ने पुरानी व्यवस्था का विरोध किया। कांग्रेस के ललित नारायण मिश्र के खिलाफ रामसेवक यादव की मदद में उतर गए। हालांकि विरोध कामयाब नहीं हुआ। 1977 के चुनाव में विरोधी सशक्त हुए। मध्य विद्यालय के बूथ पर सुरेंद्र झा सुमन और राधानंदन झा के समर्थकों के बीच जमकर मारपीट हुई। मामला केस-मुकदमा तक गया। सुरेंद्र झा सुमन सांसद बन गए। वर्ष 1989 में फिर बदलाव आया। लोगों ने खुलकर मतदान किया और शकीलुर्ररहमान सांसद बन गए। कार्यकर्ता टार्च लेकर मतगणना केंद्र पर जाने लगे। वर्ष 1998 के चुनाव में बूथ कब्जा को लेकर जनता पुस्तकालय के बूथ पर दो पक्षों में मारपीट हुई। बम चलने से कई घायल हुए। कुछ लोग जेल भी गए। तब से अब तक हिसक घटनाएं नहीं हुई हैं। भगत कहते हैं कि चुनाव पहले की अपेक्षा काफी पारदर्शी हुआ है। गांव के स्वयंभू एमपी और एमएलए खत्म हो गए। कोई किसी की बात सुनने को तैयार नहीं है। काम पड़ने पर लोग खुद आते-जाते हैं।

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