खूब ठहाके लगाएं, अवसाद को दूर भगाएं
ग्रामीण क्षेत्रों और शहर के चौक चौराहों पर ठहाके लोगों की आम ¨जदगी थी। चौपाल हो या दलान, शाम और सुबह में ठहाकों की गूंज दूर दूर तक सुनाई पड़ती थी।
दरभंगा । ग्रामीण क्षेत्रों और शहर के चौक चौराहों पर ठहाके लोगों की आम ¨जदगी थी। चौपाल हो या दलान, शाम और सुबह में ठहाकों की गूंज दूर दूर तक सुनाई पड़ती थी। इधर भाग दौड़ की ¨जदगी ने ठहाके लोगों से छीन लिया है। इसका परिणाम सामने है। यही कारण है कि भारत की जनसंख्या के 20 प्रतिशत लोग अवसाद और ¨चता से पीड़ित हैं। लंबे समय तक इससे पीड़ित रहने पर ऐसे लोग गंभीर मनोरोग के शिकार हो रहे हैं। इसी अवसाद और ¨चता को मिटाने के लिए सत्संग, योग आदि कार्यक्रमों में ठहाके को शामिल किया गया है। हंसने के लिए लोग आज कल अपने घरों में महात्मा बुद्धा की मूर्ति को रखने का फैशन बना लिया है, लेकिन सामाजिक जुड़ाव के अभाव में चेहरे पर से मुस्कान गायब हो गए हैं और लोग मनोरोग के शिकार होते जा रहे है।
हंसना एक आनंद की अनुभूति है। यह अनुभूति अवसाद और ¨चता को कम करती है। हंसने के दौरान मस्तिष्क में एंडारफीन हार्मन का श्राव बढ़ जाता है। इसके कारण लोग अच्छा महसूस करने लगते हैं। ऐसे लोगों का मानसिक स्वास्थ्य हमेशा बरकरार रहता है। इसलिए जीवन में हंसने का मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक महत्व अधिक है। लोग तीन तरह से हंसते हैं। सबसे अच्छा सात्विक हंसना को माना गया है।
हमेशा भाग दौड़ और एकांकी ¨जदगी ने लोगों को अवसाद का शिकार बना दिया है। औद्योगिक मनोविज्ञान के अनुसार लोगों की आठ घंटे कार्यक्षमता रहती है। इससे अधिक काम लेने पर वैसे लोग थक जाते हैं और इसका प्रभाव उनके मस्तिष्क पर पड़ता है। वर्तमान युग में लोग 24 घंटों में 16 घंटे काम करते रहते हैं। ऐसे लोगों का सामाजिक जुड़ाव कम हो जाता है। लोग मशीनी ¨जदगी जीने लगे हैं। कामकाजी पुरुष या महिला अपने बच्चों को समय नहीं दे पाती है। बच्चे भी इस अवसाद के शिकार हो रहे हैं।
लनामिविवि के पीजी मनोविज्ञान विभाग पूर्व अध्यक्ष डॉ. गौरीशंकर राय ने बताया कि हंसना जीवन का एक अभिन्न अंग है। इसके अभाव में लोग माइग्रेन, त्वचा संबंधी रोग, कंवर्सन पेरालाईसिस आदि रोग के शिकार हो जाते हैं। मनोरोग से दूर रहने के लिए लाफटर थेरेपी जरूरी है। हंसने के लिए समूह, मनोरंजन कार्यक्रम, हास्य व्यंग्य, खाने के समय, परिवारों के बीच सुबह-शाम में जरूर हंसने का कार्यक्रम रखना चाहिए। जबतक हंसेंगे तब तक दुख की अनुभूति नहीं होगी।
डीएमसीएच मनोचिकित्सा विभाग के अध्यक्ष डॉ. उपेंद्र पासवान का कहना है कि वर्तमान में ऐसे रोगियों की संख्या अधिक आने लगी है। इस तरह के अवसाद और ¨चता से पीड़ित मरीजों में न्यूरो ट्रांसमिशन अनियंत्रित हो जाते हैं। हंसने से अवसाद में कमी आती है। 40 साल आयु वर्ग के लोगों में 10 से 12 और 50 साल आयु वर्ग के लोगों में 20 प्रतिशत ऐसे रोग के शिकार हो जाते हैं।