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डॉ. जयमंत का आदर्श व जीवन-पद्धति पथ प्रदर्शक : कुलपति

दरभंगा। महामहोपाध्याय आचार्य डॉ. जयमंत मिश्र का जीवन पंडितपूर्ण एवं आदर्श था। वे विनम्रता के प्रतिमूर्ति थे। उनका जीवन सरल, सहज व हंसमुख था।

By JagranEdited By: Published: Sun, 16 Dec 2018 12:09 AM (IST)Updated: Sun, 16 Dec 2018 12:09 AM (IST)
डॉ. जयमंत का आदर्श व जीवन-पद्धति पथ प्रदर्शक : कुलपति
डॉ. जयमंत का आदर्श व जीवन-पद्धति पथ प्रदर्शक : कुलपति

दरभंगा। महामहोपाध्याय आचार्य डॉ. जयमंत मिश्र का जीवन पंडितपूर्ण एवं आदर्श था। वे विनम्रता के प्रतिमूर्ति थे। उनका जीवन सरल, सहज व हंसमुख था। वे मर्मज्ञ विद्वान व कुशल प्रशासक थे। उनका साहित्य, व्याकरण व दर्शन में समान अधिकार था, जिनके बल पर उन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि मिली। उनका आदर्श जीवन-पद्धति हमारे लिए पथ प्रदर्शक है। सीएम कॉलेज में आयोजित सेमिनार में संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. देवनारायण झा ने यह बातें कही। संस्कृत विभाग व इंदिरा प्रकाशन के संयुक्त तत्वावधान में डॉ. मिश्र के जयंती की पूर्व संध्या पर आयोजित सेमिनार में डॉ. झा ने कहा कि जिनका यश होता है, वास्तव में वही जीवित होते हैं। आज उनकी कृति हमारे बीच मौजूद रहकर हमें रास्ता दिखा रही है। डॉ. मिश्र की लेखनी आजीवन अनवरत चलती रही। वे भगवतप्रेमी व वैष्णव थे। संस्कार व तप से ही उनकी विद्या फलीभूत हुई थी। ऐसे महापुरुषों की प्रासंगिकता आज के समय में और अधिक बढ गयी है। अध्यक्षता करते हुए कॉलेज के प्रधानाचार्य डॉ. मुश्ताक अहमद ने कहा कि संस्कृत हमारी संस्कृति का आधार है। यह सिर्फ संपर्क की ही नहीं है, बल्कि ज्ञान-विज्ञान की भाषा है। संस्कृत तमाम भारतीय भाषाओं की जननी है। संस्कृत ही व्याकरण का मूल आधार है। आज संस्कृत का लाभ पूरी दुनिया उठा रही है। इस समृद्ध संस्कृत भाषा-साहित्य के विकास में डॉ. जयमंत मिश्र का उल्लेखनीय योगदान रहा है। संस्कृत में 8 महाकाव्य की रचना कर दिया उच्च कोटि का ज्ञान :

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इस अवसर पर राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली के पूर्व निदेशक डॉ. कमलाकांत मिश्र ने कहा कि डॉ. मिश्र संस्कृत जगत के अद्वितीय विद्वान थे जिनमें भारत की प्राचीन एवं अर्वाचीन संस्कृति का विलक्षण समन्वय था। वे संस्कृत व्याकरण के प्राण-प्रण थे। उन्होंने 119 से अधिक शोधो-निबंधों को लिखा, जो विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपा। उनके प्रमुख ग्रंथ श्रीकृष्णचंदचरित में भगवान कृष्ण के जन्म से मृत्यु पर्यंत 125 वर्षों का सुंदर वर्णन मिलता है। उन्हें साहित्य अकादमी, संस्कृतरत्न, मिथिला विभूति व राष्ट्रपति सम्मान आदि अनेक पुरस्कार मिले। आर के कॉलेज मधुबनी के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. विघ्नेशचंद्र झा ने कहा कि डॉ. मिश्र निरंतर परमात्मा के राधाकृष्ण स्वरूप का स्मरण करते थे। उन्होंने संस्कृत में 8 महाकाव्य के माध्यम से जो उच्च कोटि की शिक्षा दिया है, उन्हें आज पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत है। यदि युवा उनके मार्गदर्शन पर चले तो समाज का काफी कल्याण व राष्ट्र का विकास होगा। कई विद्वानों ने रखे विचार, युवाओं से की अपील :

सेमिनार को जन शिक्षण संस्थान गया के निदेशक डॉ. नरेश झा, लनामिविवि के पीजी संस्कृत विभाग के प्राध्यापक डॉ. जयशंकर झा, संस्कृत विश्वविद्यालय के वेद विभाग के प्राध्यापक डॉ. विनय कुमार मिश्र आदि ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम के प्रारंभ में डॉ. मिश्र के चित्र पर अतिथियों ने पुष्पांजलि अर्पित कर उनके प्रति श्रद्धा निवेदित किया। इस अवसर पर प्रो. विश्वनाथ झा, डॉ. प्रभात कुमार चौधरी, डॉ. गिरीश कुमार, डॉ. रुद्रकांत अमर, डॉ. मंजू राय, डॉ. अमरेंद्र शर्मा, डॉ. सच्चिदानंद स्नेही, डॉ. योगेंद्र महतो, डॉ. दीनानाथ साह, डॉ. दिलीप कुमार चौधरी, डॉ. परमानंद झा, महेशकांत झा, डॉ. प्रभास चंद्र झा समेत कई प्रतिभागी, शोधार्थी व छात्र-छात्राएं मौजूद थे। कार्यक्रम का प्रारंभ संस्कृत के शोधार्थी प्रदीप तिवारी के वैदिक मंगलाचरण से हुआ, स्वस्तिवाचन संस्कृत के छात्र विकास कुमार गिरी ने किया। अतिथियों का स्वागत कार्यक्रम की संयोजिका प्रो. इंदिरा झा, संचालन डॉ. मित्रनाथ झा ने जबकि धन्यवाद ज्ञापन डॉ. आरएन चौरसिया ने किया।


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