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कभी चीनी मिल के साइरन से होती थी दिनचर्या, अब खामोशी

देश और दुनिया में गन्ना और आम की मिठास के साथ-साथ माछ-मखान की बदौलत दरभंगा की पहचान कायम है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 04 Apr 2019 01:51 AM (IST)Updated: Thu, 04 Apr 2019 06:29 AM (IST)
कभी चीनी मिल के साइरन से होती थी दिनचर्या, अब खामोशी
कभी चीनी मिल के साइरन से होती थी दिनचर्या, अब खामोशी

दरभंगा । देश और दुनिया में गन्ना और आम की मिठास के साथ-साथ माछ-मखान की बदौलत दरभंगा की पहचान कायम है। दरभंगा जिला मुख्यालय से 20 किमी पूरब की ओर जाने पर मधुबनी जिला की सीमा के नजदीक सकरी रेल जंक्शन है। सकरी शहर के रूप में विकसित हो गया है। पहले इस जगह की पहचान सकरी चीनी मिल से हुआ करती थी। चीनी मिल से निकलती मशीनों की घरघराहट और मिल के सायरन की आवाज से लोगों की दिनचर्या शुरू होती थी। अब उस चीनी मिल का अस्तित्व समाप्त हो गया है। चीनी मिल की जगह अब खंडहरनुमा मकान बीते दिनों की याद दिला रहे हैं। कभी मिल में काम करने वाले कर्मी इन भवनों में रहा करते थे। अब बस अतीत की यादें ही शेष रह गई हैं। लगती थी बैल गाड़ियों की लंबी कतार :

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सकरी मिल के नजदीक रहने वाले कृष्णदेव मंडल सवेरे मिल परिसर में टहलते हुए बताते हैं कि अहले सुबह खेत में लगे गन्ने को काटते किसान, खेत के मेड़ों और पगडंडियों से होकर गुजरती गन्ने से लदी ट्रॉलियां, रेलवे स्टेशनों के आसपास एवं अन्य जगहों पर बने राटन (राटन उस स्थान को कहा जाता था जहां से गन्ना को मालगाड़ी या ट्रॉली पर लादकर रेल मार्ग से चीनी मिल में भेजते थे) पर बैल गाड़ियों की लंबी कतारें की वजह से दिन भर चहल-पहल हुआ करती थी।

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महाराज की जमींदारी के अधीन मुनाफे में थी मिल :

1933 में तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने यहां की मिट्टी जांच कराई। पाया गया कि यहां की मिट्टी गन्ना और आम की फसल के लिए उपयुक्त है। जांच के आधार पर अंग्रेजी सरकार ने दरभंगा और मधुबनी जिले में तीन चीनी मिलों को स्थापित किया। सकरी, रैयाम और लोहट चीनी मिल। आजादी से पूर्व दरभंगा महाराज की जमींदारी के अधीन यह मिल था। उस समय तक मिल मुनाफे में थी। आजादी के बाद शुगर कॉरपोरेशन बनाकर इन मिलों को सरकार ने उसके अधीन कर दिया। यहीं से बुरा वक्त शुरू हो गया। जो मिले मुनाफे में चल रही थी, वह घाटे में आ गई। लड़खड़ाते हुए किसी तरह 1992 तक मिल चली। 1993 में मिल को पूर्णत: बंद कर दिया गया। तब से आज तक कई बार किसानों ने मिल चालू कराने की मांग की। आंदोलन किया लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।

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प्रतिदिन हजार टन गन्ने की होती थी पेराई

सकरी चीनी मिल का परिसर करीब 40 एकड़ में फैला हुआ है। जब मिल चालू थी, उस समय मिल के अंदर 350 लोग काम करते थे। प्रतिदिन 1000 टन गन्ने से रस निकालकर चीनी तैयार किया जाता था। निर्मली, झंझारपुर, लौकहा, फुलपरास, बेनीपुर, बिरौल, सुपौल, कुशेश्वरस्थान आदि स्थानों के किसान अपने खेतों में गन्ना उपजा कर मिल में बेचते थे।

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आमदनी से लड़की की शादी और बच्चों की होती थी पढ़ाई

चीनी मिल के बगल में रहने वाले रामाशंकर झा बताते हैं कि उस समय इस क्षेत्र की आबादी के 90 प्रतिशत से भी अधिक लोग खेती-बारी पर निर्भर थे। किसानों को गन्ने की फसल से इतनी आमदनी हो जाती थी कि रोजमर्रा की जरूरतों के साथ-साथ लड़की की शादी, बच्चों की पढ़ाई का खर्चा पूरा कर लेते थे।

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चीनी मिलों को घाटा में दिखाने की परंपरा चल पड़ी

मिल से दक्षिण जाने पर पाल पट्टी गांव आता है। वहां के गन्ना उत्पादक किसान पूर्णेन्दु झा बताते हैं कि आजादी के बाद से चीनी मिलों पर संकट के बादल मंडराने लगे और चीनी मिलों को घाटा में दिखाने की परंपरा सी चल पड़ी। 26 साल में सरकार इसे चालू नहीं करा सकी। फिलहाल मिल को सरकार ने लीज पर दे दिया है। यहां लगी मशीन एवं अन्य उपकरण को धीरे धीरे मिल से हटा दिया। अब नाममात्र का उपकरण एवं खंडहरनुमा भवन शेष रह गया है।

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चीनी मिल बंद होने से गन्ने की खेती पर पड़ा बुरा असर

मनीगाछी के किसान श्रीप्रसाद यादव बताते हैं नकदी आमदनी की कमी किसानों की सबसे बड़ी समस्या पहले भी थी और अभी भी है। किसानों की मूल समस्या की तरफ किसी सरकार का ध्यान नहीं है। जिस समय मिल चालू था, उस समय हजारों एकड़ में गन्ने की खेती होती थी जो घटकर अब नाम मात्र की रह गई है। गन्ना बेचने वाले किसानों को मिल की तरफ से बनी पर्ची दी जाती थी। उस समय नकदी की किल्लत होने पर किसान पर्ची को गिरवी रखकर समाज से लोन उठाते थे। दुकानदार को पर्ची देकर उससे जेवर, कपड़ा, दवा या नकदी आसानी से प्राप्त कर लेते थे। पर्ची की बदौलत तमाम काम होते थे।

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किसानों की कमर टूटी और ह•ारों लोग हुए बेरोजगार :

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मिल में काम करने वाले हजारों लोग मिल बंद होने से बेरोजगार हो गए। क्षेत्र के लगभग 95 प्रतिशत किसानों की एकमात्र आमदनी का जरिया गन्ने की खेती थी। इनकी आमदनी बंद हो गई। गन्ना उत्पादन करने वाले किसान मोहम्मद यूसुफ, आसिफ, रामबाबू यादव, दिनेश साहू, मनोज कुमार बताते हैं कि मिल बंद होने से गन्ना की खेती छोड़ना पड़ी। बेनीपुर की तरफ बढ़ने पर आशापुर टावर के नजदीक राटन की जमीन दिखती है। राटन की करीब 5 एकड़ जमीन है। अधिकांश भाग अतिक्रमित है।

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कहते हैं लोग:: रेलवे की नौकरी छोड़ चीनी मिल में काम करने का मलाल इस इलाके में चीनी मिल का रुतबा था। इसको देखते हुए मैंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी। मिल में कैजुअल वर्कर का काम शुरू किया। करीब 20 साल काम करने के बाद नौकरी स्थाई हुई। मिल बंद होने से हमारे जैसे हजारों लोग बेरोजगार हुए। रेलवे की नौकरी छोड़ने का उन्हें आजीवन मलाल रहेगा।

मोहम्मद इस्माइल, चीनी मिल के वर्कर।

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सकरी चीनी मिल से संबंद्ध कोऑपरेटिव में लगभग 40 साल तक मैंने काम किया। 40 रुपये मासिक की तनख्वाह पर नौकरी ज्वाइन की। 1965 में ग्रुप लीडर के पद पर काम शुरू किया। लगभग 38 साल की नौकरी छूट गई। न तो पेंशन मिला और ना ही रिटायरमेंट का कोई फायदा। सरकार यदि किसान के लिए कुछ करना चाहती है तो इन बंद पड़ी चीनी मिलों को चालू करे।

मुक्तिनाथ झा, बलौर।

-------------- अभी 200 टन गन्ना पैदा कर सड़क के रास्ते ट्रक से हसनपुर चीनी मिल को भेजता हूं। 290 रुपये प्रति क्विटल की दर से मिल मुझे पेमेंट करती है। मिल तक गन्ना भेजने में 140 रुपये प्रति क्विटल खर्च आता है। नजदीक में चीनी मिल होने से काफी कम खर्च में मैं अपना गन्ना मिल को भेज देता। दरभंगा एवं मधुबनी की चीनी मिल को चालू कर सरकार क्षेत्र के किसानों की बदहाली को दूर कर सकती है।

पूर्णेंदु झा, भालपट्टी।

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