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संस्कृत के प्रति भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत : प्रो. शास्त्री

दरभंगा। कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के सातवें दीक्षा समारोह में बतौर मुख्य अतिथि दीक्षा भाषण देते हुए राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली के कुलपति प्रो. परमेश्वर नारायण शास्त्री ने कहा कि इन दिनों संस्कृत भाषा के प्रति कई जानी-अनजानी भ्रांतियां समाज में फैल गई हैं।

By JagranEdited By: Published: Fri, 29 Nov 2019 12:07 AM (IST)Updated: Fri, 29 Nov 2019 12:07 AM (IST)
संस्कृत के प्रति भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत : प्रो. शास्त्री
संस्कृत के प्रति भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत : प्रो. शास्त्री

दरभंगा। कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के सातवें दीक्षा समारोह में बतौर मुख्य अतिथि दीक्षा भाषण देते हुए राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली के कुलपति प्रो. परमेश्वर नारायण शास्त्री ने कहा कि इन दिनों संस्कृत भाषा के प्रति कई जानी-अनजानी भ्रांतियां समाज में फैल गई हैं। इससे देववाणी को नुकसान हो रहा है। जरूरत है संस्कृत में प्रतिपादित मौलिक विचारों को जनमानस तक पहुंचाने की, ताकि व्याप्त भ्रांतियां व आशंकाएं निर्मूल हो सके और संस्कृत भी निर्वाध गति से फल-फूल सके। कहा कि संस्कृत में हो रहे शोध कार्यों से निकले नए-नए तथ्यों को विभिन्न माध्यमों के जरिए देश-विदेशों में प्रचारित-प्रसारित करने की नितांत जरूरत है। इन माध्यमों में दूरदर्शन, इंटरनेट, पत्र पत्रिकाएं समेत अन्य संसाधनों का भरपूर उपयोग किया जा सकता है। प्रो. शास्त्री ने संस्कृत विश्वविद्यालय को एक महत्वपूर्ण सुझाव देते हुए कहा कि यहां से उपाधि प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए कम से कम एक पांडुलिपि के संशोधन, प्रकाशन, मुद्रण या फिर सम्पादन की अनिवार्यता सुनिश्चित कर देनी चाहिए। इस प्रयास से दुर्लभ ग्रन्थों का प्रकाशन हो सकेगा और जो पांडुलिपियां पंडितों के घरों में, पेटियों में, पुस्तकालयों में जैसे-तैसे पड़ी हुईं हैं या कैद हैं, उसे पुनर्जीवन मिलेगा। इस अवस्था में पड़े अनेक ग्रन्थ रत्न के समान हैं, जो प्रकाशन के अभाव में इस आधुनिक युग में भी अज्ञात व अनजान हैं। प्रो. शास्त्री ने संस्कृत के विकास व उसकी उपयोगिता के लिए हर संभव प्रयास करने की वकालत की। कहा कि मिथिला में संस्कृत के व्यापक भंडार उपलब्ध हैं। यहां मीमांसा, न्याय, वेद आदिकाल से ही संपोषित होते रहे हैं। उन्होंने संस्कृतानुरागियों और संस्कृतसेवियों से अनुरोध किया कि वे अब जग जाएं और संस्कृत की प्रगति के लिए रोज नए उपायों के साथ कार्यों में लीन हो जाएं।

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