आधुनिकता की भेंट चढ़ रही दीपों की श्रृंखला
भारतीय पर्व त्योहार में निहित वैज्ञानिक ¨चतन बड़ी तेजी से दरकिनार होते जा रहे हैं।
आरा। भारतीय पर्व त्योहार में निहित वैज्ञानिक ¨चतन बड़ी तेजी से दरकिनार होते जा रहे हैं। इसका जीवंत उदाहरण ज्योति पर्व दीपावली जो अपने नाम के शाब्दिक अर्थ को खोता जा रहा है। इसमें निहित वैज्ञानिक अवधारणा आधुनिकता की भेंट चढ़ रही है। दीपो की अवली (श्रृंखला ) के कारण दीपावली के नाम से पुकारा जाने वाला त्योहार आज बल्बावली (बल्बों की अवली) हो कर रह गया है। शहरों में तो आधुनिकता ने दीपोत्सव को वैज्ञानिकता से दरकिनार कर ही दिया है, गांवों में भी अब प्राचीन परंपरा हाशिए है। उल्लेखनीय है कि वर्ष में दो ऐसे पर्वो का विधान है जो हमे साफ-सफाई से जोड़ते हैं। इनमें एक दीपावली भी है जो वर्षा ऋतु के बाद आती है। बरसात के समय घरों की दीवारों पर गंदगी जम जाती है। जगह -जगह झाड़ियां व घास-फूस उग आते हैं। कीड़ों का प्रकोप बढ़ जाता है। इन तमाम परस्थितियों को ध्यान में रख दीपोत्सव का प्रवधान भारतीय ¨चतको - मनीषियों ने किया। दीपावली से पूर्व घरो की रंगाई - पुताई तथा साफ सफाई का प्रावधान किया गया। साथ ही दीप मालिकाएं जलाकर कीट - पतंगों से मुक्ति की व्यवस्था की गई। बेकार खरो से निजात को उल्का भृमण की व्यवस्था कर सदुपयोग का रास्ता सुझाया गया। इस बहाने पूर्वजो की स्मृतियों को भी सुरक्षित रखने की व्यवस्था हुई। कहा गया कि महालया के दिन आने वाले पूर्वजों को राह दिखाने के लिए इसे जलाए तथा खेतो में जा कर इसका समापन करे। यानी बेकार खरो की राख को खाद के रूप में इस्तेमाल करे। इस वैज्ञानिक चिंतनों को धार्मिक आस्था से जोड़ कर सामाजिक परंपरा का विकास हुआ जो आधुनिकता की दौर में उपेक्षित हो रही है। मिट्टी के दीये गिने चुने लोग ही अब जलाते हैं। इसके बदले रंग बिरंगे बल्बों की लड़ियां सजाकर बल्बवली मनाने में पूरा समाज जुटा है। अब तो गांवों में भी दीपो की अवली नजर नहीं आती। दीप बनाने वाले कुंभकारों का भी बुरा हाल है।