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मिट्टी के दीप आधुनिकता की चढ़ रहे भेट

पर्व- त्योहारों में निहित वैज्ञानिक चितन बड़ी तेजी से दरकिनार होते जा रहे है।

By JagranEdited By: Published: Sat, 07 Nov 2020 05:55 PM (IST)Updated: Sat, 07 Nov 2020 05:55 PM (IST)
मिट्टी के दीप आधुनिकता की चढ़ रहे भेट
मिट्टी के दीप आधुनिकता की चढ़ रहे भेट

भोजपुर। पर्व- त्योहारों में निहित वैज्ञानिक चितन बड़ी तेजी से दरकिनार होते जा रहे है। इसका जीवंत उदाहरण ज्योति पर्व दीपावली जो अपने नाम के शाब्दिक अर्थ को खोते जा रहा है। इसमें निहित वैज्ञानिक अवधारणा आधुनिकता की भेंट चढ़ रही है। दीपो की अवली (श्रृंखला) के कारण दीपावली के नाम से पुकारा जाने वाला त्योहार आज बलबावली (बल्बों की अवली) हो कर रह गया है। शहरों में तो आधुनिकता ने दीपोत्सव को वैज्ञानिकता से दरकिनार कर ही दिया है। गांवों में भी अब प्राचीन परम्पराएं सिसक रही है। वर्ष में दो ऐसे पर्वो का विधान है जो हमे साफ -सफाई से जोड़ते है। इनमें एक दीपावली भी है जो वर्षा ऋतु के बाद आती हैं। बरसात के समय घरों की दीवारों पर गंदगी जम जाती है । जगह -जगह झाड़ियां व घास -फूस उग आते हैं । कीड़ो का प्रकोप बढ़ जाता है । इन तमाम परस्थितियों को ध्यान में रख दीपोत्सव का प्रावधान भारतीय चितको - मनीषियों ने किया। दीपावली से पूर्व घरो की रंगाई - पुताई तथा साफ सफाई का प्रावधान किया गया। साथ ही दीप मालिकाये जलाकर कीट - पतंगों से मुक्ति की व्यवस्था की गयी। बेकार खरो से निजात को उल्का भृमण की व्यवस्था कर सदुपयोग का रास्ता सुझाया गया।इस बहाने पूर्वजो की स्मृतियों को भी सुरक्षित रखने की व्यवस्था हुई। कहा गया कि महालया के दिन आने वाले पूर्वजो को राह दिखाने के लिये इसे जलाये तथा खेतों में जा कर इसका समापन करे। यानी बेकार खरो की राख को खाद के रूप में इस्तेमाल करे।इस वैज्ञानिक चिंतनों को धार्मिक आस्था से जोड़ कर सामाजिक परंपरा का विकास हुआ जो आधुनिकता की दौर में उपेक्षित हो रही है। मिट्टी के दीये गिने चुने लोग ही अब जलाते है। इसके बदले रंग बिरंगे बल्बों की लड़ियां सजाकर बल्बवली मनाने में पूरा समाज जुटा है।अब तो गांवो में भी दीपो को अवली नजर नही आती।दीप बनाने वाले कुंभकारों का भी बुरा हाल है। पथार गांव निवासी कुंभकार संतोष पंडित ,श्यामदेव पंडित की माने तो पहले की तुलना में मिट्टी के दीये बनाये ही कम जाते,जो बनते भी है उनका खरीदार नहीं मिलते।

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