Holi 2019: आखिर क्यों नहीं किया जाता भद्रा में होलिका दहन, ...जानें शुभ मुर्हूत और पूजन विधि
प्राचीन पर्वों की यही सुंदरता है कि इनके पीछे छुपे पौराणिक राज हमें आकर्षित करते हैं। यह पर्व संदेश देता है कि ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदा उपस्थित रहते हैं।
भागलपुर [दिलीप कुमार शुक्ला]। होलिका दहन, होली त्योहार का पहला दिन, फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसके अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा है, जिसे रंगोत्सव, होली, धुलेंडी, धुलंडी और धूलि आदि नामों से भी जाना जाता है। होली बुराई पर अच्छाई की विजय के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। होलिका दहन (जिसे छोटी होली भी कहते हैं) के अगले दिन पूर्ण हर्षोल्लास के साथ रंग खेलने का विधान है और अबीर-गुलाल आदि एक-दूसरे को लगाकर और गले मिलकर इस पर्व को मनाया जाता है।
रंग और उल्लास का पर्व होली बुधवार को है। रंगोत्सव यानी धुरड्डी गुरुवार को होगी। काफी समय बाद दोनों ही दिन मातंग योग बन रहा है। भद्रा के अधिक समय रहने के कारण इस बार होलिका दहन बुधवार की रात्रि नौ बजे के बाद हो सकेगा। सात साल बाद बृहस्पति के उच्च प्रभाव में दुल्हैंडी यानी रंगोत्सव होगा।
होलिका दहन का शास्त्रों के अनुसार नियम
तेतरहार (भागलपुर) निवासी वेद विद्यापीठ गुरुधाम बौंसी के पंडित अमरेश तिवारी ने कहा कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक होलाष्टक माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। यह पूरा समय होली के उत्सव का होता है। इस दौरान सभी शुभ कार्य, विवाह इत्यादि करना मना हैं।
पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन किया जाता है। इसके लिए मुख्यतः दो नियम ध्यान में रखने चाहिए
1. पहला, उस दिन 'भद्रा' न हो। भद्रा का दूसरा नाम विष्टि करण भी है, जो कि 11 करणों में से एक है। एक करण तिथि के आधे भाग के बराबर होता है।
2. दूसरी बात, पूर्णिमा प्रदोषकाल-व्यापिनी होनी चाहिए। सरल शब्दों में कहें तो उस दिन सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्तों में पूर्णिमा तिथि होनी चाहिए।
भद्रा में होलिका दहन नहीं होता है। भद्रा को विघ्नकारक माना जाता है। इस दौरान होलिका दहन से हानि एवं अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। इसीलिए भद्रा काल छोड़कर होलिका दहन किया जाता है। विशेष परिस्थितियों में भद्रा पूंछ के दौरान होलिका दहन किया जाता है। मगर इस वर्ष अच्छी बात यह है कि भद्रा रात के दूसरे पहर में ही समाप्त हो जाएगी।
होलिका दहन का शुभ मुर्हूत
बुधवार के दिन भद्रा प्रात: 10.44 बजे से रात्रि 8.59 बजे तक। होलिका दहन भद्रा के बाद ही करना शुभ है। ऐसा माना जाता है कि भद्रा में होलिका दहन नहीं किया जाता है। 9 बज कर 28 मिनट से रात्रि 11:58 तक तीन घंटे ही होलिका दहन का शुभ मुहूर्त है। इसके अलावा 21 मार्च को स्नान और दान की पूर्णिमा और होली धुरड्डी भी है। भद्रा के बाद पूर्णिमा व्रत है। इसके अलावा चैत्र कृष्ण प्रारम्भ भी 21 मार्च से ही शुरू हो रहा है।
19 मार्च (मंगलवार) : नन्द त्रयोदशी। महेश्वर व्रत। वृष दान।
20 मार्च (बुधवार) : भद्रा प्रात: 10.44 बजे से रात्रि 8.59 बजे तक। होलिका दहन भद्रा के बाद ही करें। भद्रा के बाद पूर्णिमा व्रत। सूर्य उत्तर गोल प्रारम्भ। महाविषुव दिन।
21 मार्च (गुरुवार) : स्नान-दान की पूर्णिमा। चैत्र कृष्ण प्रारम्भ। होली धुरड्डी। वंसतोत्सव। रतिकाम महोत्सव। श्री चैतन्य महाप्रभु जयंती। प्रतिपदा तिथि क्षय।.
22 मार्च (शुक्रवार) : राष्ट्रीय चैत्र मास प्रारम्भ। शक संवत् 1941 प्रारम्भ। संत तुकाराम जयंती।.
23 मार्च (शनिवार) : भद्रा प्रात: 11.39 से रात 10.32 तक।
होलिका की पवित्र आग में लोग जौ की बाल, सरसों की उबटन, गुझिया, फल, मीठा, गुलाल से होली का पूजन करते हैं। राग और रंग होली के दो प्रमुख अंग हैं। सातों रंगों के अलावा, सात सुरों की झंकार इसका उल्लास बढ़ाती है। गीत, फाग, होरी, धमार, रसिया, कबीर, जोगिरा, ध्रुपद, छोटे’बड़े ख्यालवाली ठुमरी होली की पहचान है।
होलिका दहन का मुहूर्त सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। भद्रा मुख में होलिका दहन किसी भी कीमत पर नहीं हो सकता है। भद्रा रहित प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि ही सबसे शुभ मुहूर्त होती है। भद्रा में होलिका दहन नहीं करते हैं। भद्रा समाप्ति पर ही होलिका दहन करना चाहिए।
सबसे पहले माता होलिका की विधिवत तथा शास्त्रवत पूजा होती है। भक्त प्रहलाद की कथा होती है। सम्मत में शुद्ध हवन सामग्री भी डाली जाती है। कपूर तथा चंदन की कुछ लकड़ी भी होती है। सब लोग फिर सामूहिक भक्ति गीत गाकर होलिका माता को प्रसन्न करते हैं। इस दिन अपनी किसी एक न एक बुराई को दहन अर्थात समाप्त करने का संकल्प लेना चाहिए। फिर सामूहिक फाल्गुन गीत होता है। अबीर तथा गुलाल लगा के एक दूसरे से गले मिलते हैं।
होलिका दहन की रात्रि में करें ये काम
होलिका दहन की रात्रि में श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ अवश्य करना चाहिए। इस रात्रि संकट से परेशान लोग सुंदरकांड का पाठ करें। होलिका दहन की रात्रि में कई तांत्रिक सिद्धियां भी प्राप्त की जा सकती हैं बंगलामुखी अनुष्ठान भी किया जा सकता है। शनि की साढ़ेसाती से या शनि की महादशा से प्रभावित जन शनि के बीज मंत्र का जप करें तथा हनुमान जी की विधिवत पूजा करें।
आज की रात्रि अपने वजन के बराबर अन्न दान करें। गरीब जनों में वस्त्र तथा भोजन बाटें। निर्धन जन के बच्चों में खिलौने तथा अबीर गुलाल बांटने से कभी धन की कमी नहीं आती तथा अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है।
हिंदुओं के लिए होली का पौराणिक महत्व भी है। इस त्योहार को लेकर सबसे प्रचलित है प्रहलाद, होलिका और हिरण्यकश्यप की कहानी। लेकिन होली की केवल यही नहीं बल्कि और भी कई कहानियां प्रचलित है। वैष्णव परंपरा मे होली को, होलिका-प्रहलाद की कहानी का प्रतीकात्मक सूत्र मानते हैं।
होलिका दहन की पौराणिक कथा
पुराणों के अनुसार दानवराज हिरण्यकश्यप ने जब देखा कि उसका पुत्र प्रह्लाद सिवाय विष्णु भगवान के किसी अन्य को नहीं भजता, तो वह क्रुद्ध हो उठा और अंततः उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया की वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नुक़सान नहीं पहुंचा सकती। किन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत, होलिका जलकर भस्म हो गई और भक्त प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। इसी घटना की याद में इस दिन होलिका दहन करने का विधान है। होली का पर्व संदेश देता है कि इसी प्रकार ईश्वर अपने अनन्य भक्तों की रक्षा के लिए सदा उपस्थित रहते हैं।होली की केवल यही नहीं बल्कि और भी कई कहानियां प्रचलित है।
कामदेव को किया था भस्म
होली की एक कहानी कामदेव की भी है। पार्वती शिव से विवाह करना चाहती थीं लेकिन तपस्या में लीन शिव का ध्यान उनकी तरफ गया ही नहीं। ऐसे में प्यार के देवता कामदेव आगे आए और उन्होंने शिव पर पुष्प बाण चला दिया। तपस्या भंग होने से शिव को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी और उनके क्रोध की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए। कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति रोने लगीं और शिव से कामदेव को जीवित करने की गुहार लगाई। अगले दिन तक शिव का क्रोध शांत हो चुका था, उन्होंने कामदेव को पुनर्जीवित किया। कामदेव के भस्म होने के दिन होलिका जलाई जाती है और उनके जीवित होने की खुशी में रंगों का त्योहार मनाया जाता है।
महाभारत की कहानी
महाभारत की एक कहानी के मुताबिक युधिष्ठर को श्री कृष्ण ने बताया- एक बार श्री राम के एक पूर्वज रघु, के शासन मे एक असुर महिला थी। उसे कोई भी नहीं मार सकता था, क्योंकि वह एक वरदान द्वारा संरक्षित थी। उसे गली में खेल रहे बच्चों, के अलावा किसी से भी डर नहीं था। एक दिन, गुरु वशिष्ठ, ने बताया कि- उसे मारा जा सकता है, यदि बच्चे अपने हाथों में लकड़ी के छोटे टुकड़े लेकर, शहर के बाहरी इलाके के पास चले जाएं और सूखी घास के साथ-साथ उनका ढेर लगाकर जला दें। फिर उसके चारों ओर परिक्रमा दें, नृत्य करें, ताली बजाएं, गाना गाएं और नगाड़े बजाएं। फिर ऐसा ही किया गया। इस दिन को,एक उत्सव के रूप में मनाया गया, जो बुराई पर एक मासूम दिल की जीत का प्रतीक है।
श्रीकृष्ण और पूतना की कहानी
होली का श्रीकृष्ण से गहरा रिश्ता है। जहां इस त्योहार को राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। वहीं,पौराणिक कथा के अनुसार जब कंस को श्रीकृष्ण के गोकुल में होने का पता चला तो उसने पूतना नामक राक्षसी को गोकुल में जन्म लेने वाले हर बच्चे को मारने के लिए भेजा। पूतना स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था। लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए। उन्होंने दुग्धपान करते समय ही पूतना का वध कर दिया। कहा जाता है कि तभी से होली पर्व मनाने की मान्यता शुरू हुई।
होलिका दहन का इतिहास
विंध्य पर्वतों के निकट स्थित रामगढ़ में मिले एक ईसा से 300 वर्ष पुराने अभिलेख में भी इसका उल्लेख मिलता है। कुछ लोग मानते हैं कि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी ख़ुशी में गोपियों ने उनके साथ होली खेली थी।