21 मिनट की फिल्म ने बिहार के आदिवासी बहुल गांव को राष्ट्रीय स्तर पर दिला दी पहचान
Ummeed A Hope एक उम्मीद के सहारे बदली जिंदगी। बिहार कृषि विश्वविद्यालय ने बनाई थी 21 मिनट की फिल्म। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। दूसरा स्थान मिला। आदिवासी बहुल गांव को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला दी गई।
जागरण संवाददाता, भागलपुर। विकास की चकाचौंध और दुनिया से कोसों दूर बांका जिले का बुढ़वा बथान गांव। जंगलों के भरोसे जिदंगी काटने की मजबूरी। पर लघु फिल्म 'एक उम्मीद' ने इस आदिवासी गांव की जिंदगी में नई रोशनी दिखाई है।
जी हां, बात थोड़ी फिल्मी सी लगती है लेकिन हकीकत यह है कि गांव में अब खुशहाली है। हर हाथ को काम है। अब जंगलों के भरोसे जिंदगी काटने की मजबूरी नहीं है। गांव की समृद्धि की कहानी वर्ष 2016 से शुरु हुई। आदिवासियों के जीवन में बदलाव लाने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र की टीम पहुंची और गांव में चौपाल लगा हालात को देखा।
पता चला, सूर्य की पहली किरण के साथ ही गांव के सभी मर्द करीब 25 से 30 किमी. की यात्रा करके कमाने जाते हैैं। दिन में गांव में केवल महिलाएं और बच्चे ही रह जाते हैैं। केंद्र के सदस्यों ने इस गांव को चुना। फिर गांव के विकास के लिए प्लान बनाना शुरू किया। केंद्र सरकार प्रायोजित आदिवासी उपयोजना से इस गांव को जोड़ा गया।
गांव में डा. श्रीधर पाटिल ने काम करना शुरू किया। आदिवासी समुदाय के सदस्यों के साथ मिलकर वहां रोजगार के साधन के लिए कदम बढ़ाया। गाय, बकरी, मुर्गी और मधुमक्खी पालन के लिए सभी को प्रशिक्षण देना शुरू किया। गांव को रोजगार से जोडऩे के लिए करीब चार साल तक काम चलता रहा।
स्वास्थ्य सेवा बहाल करने के लिए स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना कराई। हालांकि पहले गांव के लोगों को इलाज कराने के लिए लंबी यात्रा करनी पड़ती थी। नतीजतन, कई लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते थे।
धीरे-धीरे गांव में समृद्धि के द्वार खुल गए। लोगों की जीवनशैली में बदलाव आ गया। आदिवासी समुदाय की बदलती जीवन शैली पर बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर के मीडिया सेंटर ने 21 मिनट की एक शार्ट फिल्म बनाई। इसके जरिए आदिवासियों की बदलती जीवनशैली को बयां किया गया है। फिल्म का नाम दिया गया उम्मीद।
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