राष्ट्रीय सेमिनार संपन्न : विक्रमशिला पर व्यापक शोध और संपूर्ण खोदाई की है आवश्यकता
विक्रमशिला मीडिया ग्रुप द्वारा विक्रमशिला पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का समापन हो गया। इस सेमिनार में देश के दर्जनों विद्वानों ने अपनी बात रखी।
भागलपुर [जेएनएन]। कहलगांव एनटीपीसी के सुजाता प्रेक्षागृह में विक्रमशिला मीडिया ग्रुप द्वारा विक्रमशिला पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का समापन हो गया। सेमिनार के दूसरे दिन तकनीकी सत्र की अध्यक्षता भागलपुर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो. बिहारी लाल चौधरी ने एवं संचालन डॉ. पवन कुमार सिंह ने की। डेक्कन विश्वविद्यालय पुणे के डॉक्टोलर रिसर्च स्कॉलर लोरा त्रिवेदी ने पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन के माध्यम से दिखाते हुए कहा कि नालंदा और सारनाथ से अच्छा है विक्रमशिला। स्तूप के चारों ओर टेराकोटा की मूर्तियां लगी हैं। विभिन्न तरह के स्टोन की मूर्तियां हैं। पत्थर के बड़े-बड़े खंभों और पिलरों को एवं अन्य सामान गंगा यानी जलमार्ग से लाया होगा। विक्रमशिला के निकट गंगा नदी बहती होगी। उन्होंने पत्थरों की कला तराशने, पूजने आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला।
बीएचयू वाराणसी के प्राध्यापक प्रो. विनय कुमार ने कहा कि विक्रमशिला के द्वार पंडित प्रकांड विद्वान वगीश्वर वाराणसी के ही थे। डॉ. बीआर मणि के नेतृत्व में इस क्षेत्र में काम किया हूं। विक्रमशिला की प्राचीन काल में जो छवि थी वह धूमिल पड़ गई है। गुप्त वंश के शासक यहां काम कर चुके हैं। उस वक्त विक्रमशिला विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में सातवें स्थान पर था। आज जरूरत है धरोहर को आगे लाने की। इसे संरक्षित रखने की। यहां की जैसी शैक्षणिक विधि कहीं नहीं थी। इसे वल्र्ड हेरिटेज में शामिल करने के लिए आवाज उठानी चाहिए और प्रयास करनी चाहिए।
भागलपुर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. पवन शेखर ने कहा कि विक्रमशिला पर व्यापक शोध की आवश्यकता है। विक्रमशिला की जो भी पांडुलिपि तिब्बत एवं अन्य देशों में है उनके अन्वेषण की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यहां ताड़ के पत्ते पर काली इंक से बाईं से दाईं ओर लिखा जाता था। तिब्बत और काठमांडू में जाकर पांडुलिपि का अध्ययन किया जा सकता है। एसएसवी कॉलेज के प्रभारी प्राचार्य डॉ. व्यास नारायण भारद्वाज ने विक्रमशिला यह है या नहीं इसपर सवाल उठाते हुए कई तर्क प्रस्तुत किए।
उन्होंने कहा कि अभी तक जो धारणाएं बनी हैं वह कल ध्वस्त हो सकती हैं। पुरातत्व से प्राप्त एवं दंत कथा है। लामा तारक नाथ के अनुसार गंगा और कोशी के संगम स्थल पर विक्रमशिला था। वर्तमान में संगम स्थल कोसों दूर है। अभीतक कोई ठोस साक्ष्य प्रमाण भी नहीं मिला है। विक्रमशिला 15 किलोमीटर क्षेत्र में फैला था। अभी नाममात्र की खुदाई हुई है। कुकीहार और पत्थरघट्टा में ही पत्थर की मूर्तियां बनती थीं। धातु की भी बनाई जाती थी। पत्थरघट्टा में मिट्टी की भी मूर्तियां बनती थीं। यहां नाथ संप्रदाय का बोलबाला था। मछेन्द्रनाथ संस्थापक थे। इन्हें तिब्बत ले जाकर लुईपाद कहकर पूजा करते हैं। राजा धर्मपाल के पूर्व ही विक्रमशिला बना था। उन्होंने इसके विस्तृत खुदाई की बात कही।
गोड्डा कॉलेज के प्राध्यापक डॉ. संजय प्रियंबद ने विक्रमशिला के इतिहास पर प्रकाश डाला। डॉ. बिहारी लाल चौधरी ने कहा कि शोध होता रहे संगोष्ठियों होती रहे। विक्रमशिला ईंट से बना है यह नष्ट होते जा रहा है। इसके संरक्षण की जरूरत है। नए उत्खनन की भी आवश्यकता है। यह दक्षिण पूर्व एशिया का महत्वपूर्ण शिक्षा का केंद्र रहा है। डॉ. कमल शिवकांत हरि, डॉ. रविशंकर कुमार चौधरी आदि ने अपने विचार रखे। प्रो. रमन सिन्हा ने विषय समेकन किया।
इस अवसर पर पुलिस उप महानिरीक्षक विकास वैभव, एसडीओ सुजय कुमार सिंह, शिवशंकर सिंह परिजात एवं काफी संख्या में शिक्षाविद, इतिहासकार, छात्र छात्राएं, शोधार्थी थे। गणपत सिंह उच्च विद्यालय के एनसीसी, स्काउट एंड गाइड की छात्र छात्राएं सहयोग में थीं। मीडिया गु्रप के संयोजक पवन कुमार चौधरी ने विक्रमशिला को बौद्ध सर्किट से जोडऩे, विक्रमशिला कहलगांव को रेल सर्किट से जोडऩे, केंद्रीय विश्वविद्यालय के शीघ्र कार्यान्वयन के लिए प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से पारित किया गया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ. पवन कुमार सिंह ने की। राष्ट्र गान के बाद सेमिनार का समापन हुआ।