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ब‍िहार के पूर्व व‍िधायक ने चुनाव प्रक्रिया पर उठाए सवाल, बोले- सेवा के लिए नहीं मेवा के लिए प्रत्‍याशी उतरते हैं मैदान में

बिहार के भागलपुर जिले के पूर्व व‍िधायक शोभाकांत मंडल ने चुनाव प्रक्रिया और प्रत्‍याश‍ियों की सोच पर सवाल उठा द‍िए हैं। उन्‍होंने कहा कि पहले सेवा भाव के लिए चुनाव लड़ते थे। अब मेवा के लिए लड़ते हैं चुनाव। धन बल पर हो रहा है चुनाव।

By Dilip Kumar ShuklaEdited By: Published: Wed, 22 Sep 2021 09:28 AM (IST)Updated: Wed, 22 Sep 2021 09:28 AM (IST)
ब‍िहार के पूर्व व‍िधायक ने चुनाव प्रक्रिया पर उठाए सवाल, बोले- सेवा के लिए नहीं मेवा के लिए प्रत्‍याशी उतरते हैं मैदान में
ब‍िहार के पूर्व विधायक शोभाकांत मंडल ने कहा पहले और अभी के चुनाव में है जमीन और आसमान का अंतर।

कहलगांव (भागलपुर) [विजय कुमार विजय]। पिछले दो दशक से पंचायत चुनाव का पैटर्न ही बदल गया है। ग्राम पंचायतों में जब से फंड आबंटित होने लगा है, चुनाव में पैसे का खेल भी शुरू हो गया है। वर्तमान समय में गरीबों के लिए चुनाव लडऩा मुश्किल हो गया है। पहले सेवा भाव के तहत चुनाव लड़ते थे, लेकिन अब मेवा यानी कमाने के लिए चुनाव लड़ते हैं। पहले के एवं अभी के चुनाव में जमीन आसमान का अंतर हो गया है। अब धन और बल पर चुनाव लड़ा जा रहा है। ये बातें 1967 में मुखिया के पद पर चुनाव लड़े पूर्व विधायक शोभाकांत मंडल ने कहीं।

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उन्होंने कहा कि 1967 में चुनाव हार गए थे। उसके बाद पंचायत सदस्य प्रखंड में मनोनीत किया गया था। 1971 एवं उसके बाद हुए चुनाव में मुखिया बने थे। उसके बाद तो दो दशक तक पंचायत चुनाव हुआ ही नहीं था। पहले मुखिया, सरपंच एवं दोनों के केबिनेट में चार-चार सदस्यों का चुनाव होता था। दोनों में चार-चार सदस्य मनोनीत किए जाते थे। उस वक्त पंचायत प्रतिनिधियों को मानदेय भी नहीं मिलता था। पंचायतों को फंड भी नहीं मिलता था। रिलीफ या ढांड, बांध, पोखर आदि की स्कीम आती थी जो पंचायत के मुखिया द्वारा कराया जाता था।

उन्होंने कहा किस समय चुनाव के नाम पर सिर्फ सदा पोस्टर छपता था। समर्थक गांव गांव जाकर साटते थे। लाउडस्पीकर, भोंपू भी उपलब्ध प्रचार के लिए नहीं था। समर्थकों के साथ पैदल गांव-गांव एवं घर घर जाकर प्रचार करते थे। ग्रामीण पंचायत के प्रतिष्ठित लोगों, बेदाग छवि वाले को मुखिया और सरपंच चुनते थे। गांव में मतदान होता था और मतदान के बाद मतदान केंद्र पर ही मतगणना हो जाती थी और परिणाम भी घोषित कर दिया जाता था। चुनाव में मात्र दो से तीन सौ रुपये ही खर्च होता था।

गांव में मुखिया सरपंच की इज्जत होती थी जो इन लोगों द्वारा पंचायती कर दी जाती थी वह मान्य हो जाता था। चुनाव के बाद कोई द्वंद या मन मुटाव नहीं होता था। गत दो दशक से पंचायत चुनाव का पैटर्न ही बदल गया है। जब से केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार पंचायतों का फंड देना और मुखिया द्वारा योजना में खर्च करने की जिम्मेवारी दी है, तब से ही चुनाव में धन और बल का खेल शुरू हो गया है। पहले कार्यकर्ता ईमानदारी से अपने घर से खाना खाकर प्रचार करते थे, पर अब उम्मीदवार खाना खिलाकर, पैकेट में पैसा देकर प्रचार करवाते हैं।

मतदाताओं के बीच शराब, मुर्गा,मांस और पैसा बांटते हैं। मुखिया दस से बीस लाख रुपये खर्च करते हैं। जब लाखों खर्च कर मुखिया बनेंगे तो पंचायत के योजनाओं में जरूर लूट मचाएंगे। अभी के चुनाव में यही हो रहा है। पहले विधानसभा चुनाव में भी काफी खर्च होता था। सात बार विधानसभा चुनाव लड़ा हूं, तीन बार जीता हूं। अब चुनाव काफी खर्चीला हो गया है। 80 वर्ष उम्र हो रही है। अब चुनाव लडऩे की हिम्मत नहीं है।


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