कहां गुम हो गई चंपा : चंपा के गुम होते ही ध्वस्त होती गई ग्रामीण अर्थव्यवस्था
बदबू ने सांस लेना दूभर कर दिया है। अजमेरीपुर बैरिया ही क्यों चंपा किनारे बसे श्रीरामपुर और अन्य गांवों की भी यही स्थिति है। ये गांव हमेशा से ऐसे नहीं थे।
भागलपुर [जितेंद्र कुमार]। चंपा के किनारे बसा गांव अजमेरीपुर बैरिया। चंपा सूखती गई। न तो नमी से तर खेत रहे, न लहलहाती फसलें। नदी किनारे दूर तक वीरानी छाई है। बदबू ने सांस लेना दूभर कर दिया है। अजमेरीपुर बैरिया ही क्यों, चंपा किनारे बसे श्रीरामपुर और अन्य गांवों की भी यही स्थिति है। ये गांव हमेशा से ऐसे नहीं थे। चंपा की कलकल धारा से यहां की धरती निहाल थी। गेहूं, मकई, चीना (चावल के रूप में इस्तेमाल करते थे), खैरी और मड़वा की फसलों से हर घर खुशहाल था। चारे की कोई कमी नहीं थी। दूध इतना होता था कि मलाई निकालने के बाद उसे चंपा में ही बहा देते थे। इसे महुआ दूध बोलते हैं।
नदी के जल पर ही टिका था जीवन
अजमेरीपुर बैरिया के सबसे वृद्ध सौदागर मंडल (90 वर्ष) बताते हैं कि 50-60 साल पहले आज जैसी सुविधा नहीं थी। जल के अन्य स्रोत बहुत कम थे। लोग मवेशियों और अपने लिए भी पीने तक का पानी चंपा से ही लाते थे। नदी किनारे गांव होने से मवेशियों के लिए चारे का संकट नहीं होता था। मवेशी खूब दूध देते थे। घड़े में दूध भर कर हम लोग शहर जाते थे। उस समय इतना दूध होता था कि खपत ही नहीं हो पाती थी। अक्सर, दूध का मक्खन निकाल कर महुआ दूध नदी में ही बहा देते थे। उस समय चंपा को पार करने के लिए गांव में दो नावें थीं। उसी नाव पर चढ़कर सभी भागलपुर शहर जाते थे। नाविक (मल्लाह) हर घर से पूरे साल के किराए के रूप में पांच सेर अनाज (सवा छह किलोग्र्राम) लेते थे। चंपा कई हिस्सों के लिए वरदान थी। हमारे इलाके में तो नहीं, लेकिन अन्य इलाके में धान की फसल के अलावा मत्स्य पालन भी इसी नदी की गोद में हो जाया करता था। उन दिनों इस नदी में मछलियों की कई प्रजातियां होती थीं। वर्तमान में तो इसकी मछली तक खाने योग्य नहीं बची है।
नदी की दुर्दशा से व्यथित हैं वृद्ध
इसी गांव के प्रेमलाल मंडल (80 वर्ष) कहते हैैं कि नाथनगर स्थित स्कूल जाने के लिए तब नाव का ही सहारा था। नदी में वर्ष भर पानी रहता था। उस समय बड़ी-बड़ी नावें अनाज लादकर बरारी घाट से इसी रास्ते नवगछिया की तरफ जाती थीं। गांव में खुशहाली थी। अब इसका पानी दूषित हो गया है। कूड़ा-कचरा के कारण नदी भी सिमट गई है। दूसरा संकट यह है कि तेज बारिश के दिनों में नदी उफान पर होती है। बाढ़ आने से तबाही मच जाती है। नदी अब नाले के रूप में सिमट गई है। गर्मी के दिनों में लोग पानी के लिए तरसते हैं। दुख होता है नदी की इस दशा को देखकर।
पशुपालन पर भी पड़ा प्रभाव, अब मवेशी नहीं
श्रीरामपुर गांव के निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक रामनारायण मंडल (79 वर्ष) बताते हैं कि यह नदी का क्या महत्व था। वे बोलते हैं, हमारे जीवन में यह नदी इस कदर रच बस गई थी कि शादी-ब्याह से लेकर सारे सामाजिक-धार्मिक आयोजन इसी के जल से संपन्न होते थे। गांव में एकाध ही कुआं हुआ करता था। उन कुओं से गांव की प्यास तो नहीं बुझ सकती थी, ऐसी दशा में नदी ही सहारा थी। नदी सूखने से मवेशी भी खत्म हो गए। जब नदी थी, तब हर घर में चार से पांच मवेशी होते थे। अब पूरे गांव में महज 30 मवेशी रह गए हैं। उस समय एक बीघे में अठारह मन गेहूं उपज जाता था, वह भी बिना सिंचाई के, क्योंकि नदी के पानी से आसपास के खेत इतने तर रहते थे कि सिंचाई की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। अब एक मन भूसा एक हजार रुपये में मिल रहा है। अंदाजा लगा सकते हैैं नदी के समाप्त होने के बाद इसका यहां के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है।