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कहां गुम हो गई चंपा : तब मलाई निकाल महुआ दूध चंपा में बहा देते थे

50-60 साल पहले आज जैसी सुविधा नहीं थी। जल के अन्य स्रोत बहुत कम थे। लोग मवेशियों और अपने लिए भी पीने तक का पानी चंपा से ही लाते थे। मवेशियों के लिए चारे का संकट नहीं होता था।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Mon, 25 Nov 2019 07:58 AM (IST)Updated: Mon, 25 Nov 2019 07:58 AM (IST)
कहां गुम हो गई चंपा : तब मलाई निकाल महुआ दूध चंपा में बहा देते थे
कहां गुम हो गई चंपा : तब मलाई निकाल महुआ दूध चंपा में बहा देते थे

भागलपुर [जितेंद्र कुमार]। चंपा के किनारे बसा गांव अजमेरीपुर बैरिया। जैसे-जैसे चंपा सूखती गई, इस गांव की समृद्धि को भी मानों किसी की नजर लग गई। न तो अब नमी से तर खेत रहे, न लहलहाती फंसलें। नदी किनारे दूर तक विरानी छायी है। बदबू ने जीना मुहाल कर दिया है। अजमेरीपुर बैरिया ही क्यों चंपा किनारे बसे श्रीरामपुर और अन्य गांवों की भी यही स्थिति है। पर, ये गांव हमेशा से ऐसे नहीं थे। चंपा के वेगवान और कलकल करते जल से यहां की धरती निहाल थी।

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गेहूं, मकई, चीना (चावल के रूप में इस्तेमाल करते थे), खैरी और मड़वा की फसलों से हर घर खुशहाल था। चारे की कोई कमी नहीं थी। दूध इतना होता था कि मलाई निकालने के बाद उसे चंपा में ही बहा देते थे।

अजमेरीपुर बैरिया के सबसे बुजुर्ग सौदागर मंडल (90 वर्ष) बताते हैं 50-60 साल पहले आज जैसी सुविधा नहीं थी। जल के अन्य स्रोत बहुत कम थे। लोग मवेशियों और अपने लिए भी पीने तक का पानी चंपा से ही लाते थे। नदी किनारे गांव होने से मवेशियों के लिए चारे का संकट नहीं होता था। मवेशी खूब दूध देते थे। घड़े में दूध भर कर हम लोग शहर जाते थे। उस समय इतना दूध होता था खपत ही नहीं हो पाती थी। अक्सर, दूध का मक्खन निकाल कर महुआ दूध नदी में ही बहा देते थे। उस समय चंपा को पार करने के लिए गांव में दो नावें थीं। उसी नाव पर चढ़कर सभी भागलपुर शहर जाते थे। नाविक (मल्लाह) हर घर से पूरे साल के किराए के रूप में पांच सेर अनाज (सवा छह किलोग्र्राम) लेते थे। सौदागर मंडल बताते हैं, चंपा कई हिस्सों के लिए वरदान थी। हमारे इलाके में तो नहीं लेकिन अन्य इलाके में धान की फसल के अलावा मत्स्य पालन भी इसी नदी की गोद में हो जाया करता था। उन दिनों इस नदी में मछलियों की कई प्रजातियां होती थीं। वर्तमान में तो इसकी मछली तक खाने योग्य नहीं बची है।

इसी गांव के प्रेमलाल मंडल (80 वर्ष) कहते हैैं कि नाथनगर स्थित स्कूल में जाने के लिए तब नाव ही सहारा था। नदी में वर्ष भर पानी रहता था। उस समय बड़ी-बड़ी नावें अनाज लादकर बरारीघाट से इसी रास्ते नवगछिया की तरफ जाती थीं। उन नावों को कई लोग चप्पू के सहारे चलाते थे। गांव में खुशहाली थी। कोई बीमार नहीं होता था। तब इसी नदी के सहारे लोग ङ्क्षजदा थे। अब इसका पानी दूषित हो गया है। इस कारण लोग इसके इर्दगिर्द जाना भी पंसद नहीं करते हैं। दूर से ही बदबू आती है। दूसरा संकट ये है कि तेज बारिश के दिनों में नदी उफान पर होती है। बाढ़ आने से तबाही मच जाती है। नदी अब नाले के रूप में सिमट गई है। गर्मी के दिनों में लोग पानी के लिए तरसते हैं। दुख होता है नदी की इस दशा को देखकर।

श्रीरामपुर गांव के निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक रामनारायण मंडल (79 वर्ष) बताते हैं यह नदी हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। हमारे जीवन में यह नदी इस कदर रच बस गई थी कि विवाह, श्राद्ध और अन्य आयोजनों में इसी का जल उपयोग करते थे। गांव में एकाध ही कुआं हुआ करता था। उन कुओं से गांव की प्यास तो नहीं बुझ सकती थी, ऐसी दशा में नदी ही सहारा थी। नदी सूखने से मवेशी भी खत्म हो गए। जब नदी थी तब हर घर में चार से पांच मवेशी होते थे। अब पूरे गांव में महज 30 मवेशी रह गए हैं। उस समय एक बीघे में अठारह मन गेहूं उपज जाता था, वो भी बिना सिचाई के। क्योंकि नदी के पानी से आसपास के खेत इतने तर रहते थे कि सिचाई की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। अब एक मन भूसा एक हजार रुपये मिल रहा है। अंदाजा लगा सकते हैं नदी के समाप्त होने के बाद कैसे जीवन शैली बदल गई है।


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