कहां गुम हो गई चंपा : 'नदी पुत्रों' पर सियासत, जलधारा पर मौन
इको सिस्टम का समाप्त होना अच्छे संकेत नहीं हैं। नदी का भी जीवन चक्र हो जाता है। चंपा सूख गई मछलियां गायब हो गईं और इस पर आधारित कितने ही परिवार के समक्ष अब रोजी-रोटी की समस्या।
भागलपुर [संजय कुमार सिंह]। नदियों की लहरों के साथ खेलने वाले समुदाय या यूं कहें 'नदी पुत्रों' के नाम पर सियासत खूब होती रही, पर उनकी आर्थिक स्थिति को समृद्ध करने वाली जलधारा के नाम पर मौन! चंपा सूख गई, मछलियां भी गायब हो गईं और इस पर आधारित कितने ही परिवार के समक्ष अब रोजी-रोटी की समस्या।
साल-दर-साल गुजरता गया। चंपा की दुर्दशा पर कहीं से आवाज नहीं उठी। आम जीवन पर क्या फर्क पड़ता है, यह कोई टीकू महलदार से पूछे। नदी किनारे के गांव-मोहल्ले बाबूटोला, रामपुर मुशहरी, वार्ड नंबर छह आदि में तीन सौ से भी अधिक परिवार की आजीविका का साधन यही नदी थी। टीकू बताते हैं कि उनके पूर्वजों की आय का जरिया इसी नदी की मछलियां थीं। अब नदी सूख चुकी है, प्रदूषित हो चुकी है तो मछलियों के लिए दूसरी जगह जाना पड़ता है। अब तो कई लोगों ने दूसरा काम-धंधा शुरू कर दिया है।
1971 से पहले तक थीं कई प्रकार की मछलियां
1971 से पहले इस नदी में बुआरी, अरिया, बेनौला, वामी, गैंची, गरई, मांगुर, सौचकी, झींगा आदि मछलियां पाई जाती थीं। अब ये विलुप्त हो चुकी हैं। अभी बुआरी मछली मिल रही है। इस मछली को खा लें तो बीमार पडऩा तय है, क्योंकि नदी प्रदूषित है। कभी बैशाख में भी चंपा में 20 फीट पानी रहता था। अब शहर के नाले का पानी गिर रहा है। रामपुर मुशहरी निवासी संजय मंडल कहते हैं कि बचपन में नदी में जाते थे तो लगता था कि मछलियां काट रही हों। अब वह अनुभव नहीं होता है। इस नदी की मछली खा नहीं सकते। हमारी उम्र के लोग अब घर छोड़कर दूसरे राज्यों में काम कर रहे हैं।
तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के जंतुविज्ञान के प्रोफेसर डीएन चौधरी कहते हैं, इको सिस्टम का समाप्त होना अच्छे संकेत नहीं हैं। नदी का भी जीवन चक्र हो जाता है। प्रदूषण का असर जलीय जीवों पर पड़ता है तो उस पर निर्भर रहने वाले लोग भी प्रभावित होते हैं। खास तौर वे मछुआरे, जिन्हें नदी की संतान कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अभी चंपा में प्रवाह की कमी के कारण पानी विषाक्त हो रहा है। इसका एक कारण है लगातार कम हो रहा गैर मानसूनी प्रवाह और दूसरा गंदे पानी को फिल्टर किए बिना नदी में छोडऩा।