अतीत के आईने से : गुरु शिष्य परंपरा और राजनीति... हार की चिंता नहीं, शिष्य के जीतने की खुशी
अतीत के आईने से बांका में सोशलिस्ट नेता सुखनारायण सिंह और जनसंघ नेता जनार्दन यादव ने गुरु शिष्य परंपरा को आदर्श बनाकर रखा। आज दोनों राजनीत के प्रेरणाश्रोत हैं।
बांका [राहुल कुमार]। अतीत के आईने से : गुरु शिष्य परंपरा और राजनीति... : आजकल राजनीति में प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ हर हथकंडा आजमाया जाता है। कई बार जुबानी जंग इतनी तल्ख होती है कि पूछिए मत। इस सियासत में कौन किसकी जमीन रातों-रात खिसका दे, कहना मुश्किल है। ऐसे में अमरपुर के सुखनारायण सिंह और जनार्दन यादव के संबंधों की कहानी बड़ा संदेश देती है।
सुखनारायण सिंह पक्के सोशलिस्ट और राममनोहर लोहिया के खास थे। जनार्दन यादव पक्के जनसंघी ठहरे। छात्र जीवन में अठमाहा हाईस्कूल में सुखनारायण सिंह जनार्दन यादव के शिक्षक रह चुके थे। तब गुरु-शिष्य के संबंध में खास मर्यादा रहती थी। इसे संयोग ही कहिए कि 1967 के विधानसभा चुनाव में अमरपुर सीट पर दोनों आमने-सामने हो गए। गुरु संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और चेला भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी बने। 1967 के बाद 1969 के चुनाव में भी गुरु भारी पड़े। दोनों में दिलचस्प और शानदार मुकाबला हुआ। 1972 में तीसरी बार जब गुरु-चेला फिर आमने-सामने हुए तो चेला गुरु पर भारी पड़ गया। जनार्दन यादव अपने गुरु को चुनाव हराकर अमरपुर से पहली बार विधायक बन गए। बाद में वह बिहार सरकार में मंत्री के अलावा राज्यसभा और लोकसभा दोनों सदनों में भी पहुंचे। पूर्व सांसद जनार्दन यादव उन दिनों को याद कर कहते हैं कि जीत के बाद मतगणना केंद्र पर उनके गुरुदेव आए और उन्हें सीने से लगा लिया। उनके चेहरे पर हार की चिंता नहीं, बल्कि अपने शिष्य के विधायक बनने की खुशी साफ झलक रही थी। इसके बाद सुखनारायण बाबू जनार्दन यादव को ही अपनी विरासत सौंप दोबारा शिक्षण पेशे से जुड़ गए। दो दशक तक झारखंड के झरिया में उन्होंने अध्यापन कार्य किया। 16 नवंबर 2000 को उनका निधन हो गया।
पूर्व सांसद जनार्दन यादव आज भी उनको याद कर भावुक हो जाते हैं। कहते हैं, उनके जैसा पक्का सोशिलस्ट उन्होंने पूरी राजनीति में इतने करीब से नहीं देखा। सुखनारायण बाबू शंभूगंज के गुलनी कुशाहा गांव के रहने वाले थे। पहले वह हाईस्कूल में शिक्षक बने, इसके बाद कॉलेज में प्रोफेसर हो गए। उनके पुत्र दीपक सिंह बताते हैं कि जनार्दन यादव को उनके पिता ने दो बार हराया, फिर उनसे चुनाव हारकर उनके पिता ने राजनीति छोड़ दी। दोनों गुरु-शिष्य परिवार के संबंधों में हमेशा मिठास बनी रही। पिता जी जब तक रहे, दोनों का गुरु-शिष्य की तरह मिलना जारी रहा। अब ऐसी राजनीति को कहां देखने को मिलती है।