सेहत की सेहत : साहब को कुर्सी की चिंता
जब से सूबे में स्वास्थ्य विभाग के बड़े साहब बदल गए हैं जिले के साहब खासे परेशान हैं। आखिर क्यों ? जाने स्वास्थ्य विभाग के अंदर की बात..
भागलपुर [अशोक अनंत]। जब से सूबे में स्वास्थ्य विभाग के बड़े साहब बदल गए हैं जिले के साहब खासे परेशान हैं। पहले खुद भी शांत रहते थे और अधिनस्थों के बीच भी शांति बनाए रखते थे। अब मानों शांति छिन गई है। वाणी पर भी नियंत्रण जाता रहा है। नतीजतन अधिनस्थ कर्मचारी डरे-सहमे कार्यालय आ रहे हैं। पता नहीं साहब का मूड कब खराब हो जाए, वे क्या बोल जाएं। साहब के परेशान होने का भी कारण है। साहब ने कुछ महीने पहले ही 'काम' करने का तरीका सीखा है। ऊपर तक मैनेज करने के बाद उन्हें यह कुर्सी नसीब हुई है। चर्चा है कि बड़े साहब काम कराना जानते हैं। अपनी ही सुनते हैं। ऐसे में साहब वैसे लोगों की तलाश कर रहे हैं जो बड़े साहेब के नजदीक हों। अगर जल्द ही कुछ सेटिंग नहीं हुई तो, जून का महीना भी पास में ही है। कही कुर्सी ही न चली जाए। डॉक्टर मांग रहे गाइड लाइन
कोरोना काल में कुछ 'माननीय' डॉक्टरों द्वारा फीस बढ़ोतरी करना अब उनके लिए परेशानी का सबब बनने लगी है। अन्य डॉक्टर भी इस बात को जान गए हैं। इसकी चर्चा भी होने लगी है। दूसरे डॉक्टर यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि लोग कोरोना महामारी को लेकर परेशान हैं। ऐसे में फीस नहीं बढ़ानी चाहिए। डॉक्टरों के वाट्सएप गु्रप पर भी इसकी चर्चा हो रही है। एक डॉक्टर गु्रप पर 'उन श्रीमान' के बारे में जानकारी लेने चाह रहे हैं। साथ ही 'खंडन' करने की भी सलाह दे रहे हैं। तो दूसरे डॉक्टर 'गाइड लाइन' देने की मांग कर रहे हैं। डॉक्टरों के संघ के छोटे बाबू क्या करें। सभी को जानकारी है कि महामारी के दौर में फीस बढ़ाना गलत है। एक डॉक्टर को तो मानों 'ज्ञान' ही मिल गया। कहते हैं जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। सबकुछ यहीं छूटेगा, जितना हो लोगों की मदद करनी चाहिए। मुंह नहीं खोलने की हिदायत
किसने बताया, किसने जानकारी दी है। कोई भी प्रश्न करने पर स्वास्थ्य विभाग के एक बड़े अधिकारी का यही सवाल रहता है। असल में अधिकारी यह नहीं चाहते है कि कोई भी बात कार्यालय से बाहर जाए। खुदा ना खास्ते अगर बात लीक भी हो जाती है तो अधिकारी को जबाव देना मुश्किल सा लगने लगता है। जबाव देने के पहले उल्टा सवाल दाग देते हैं.. कौन बताया? हर सावल का उन्होंने एक आसान जबाव भी तलाश लिया है। मुझे नहीं पता है। अच्छा.. पता करता हूं। इससे ज्यादा वे कुछ जबाव देना भी नहीं चाहते। अगर कोई और सवाल किया जाता है तो कॉल ही काट देते हैं। अधिनस्थ कर्मचारी भी अब उनसे परेशान रहने लगे हैं। दो-चार कर्मचारियों से घिरे रहने वाले अधिकारी अक्सर खामोशी से अपना काम निकालने में व्यस्त रहते हैं। कार्यालय के कर्मचारियों को भी कड़ी हिदायत दे रखी है कि कोई मुंह नहीं खोलेगा। तिमारदारों की नजर पॉकेट पर
मरीजों की तिमारदारी पर कम उनकी जेब पर ज्यादा नजरें टिकी हुई हैं। शहर के एक सरकारी अस्पताल में यही हो रहा है। उन्हें कार्रवाई का भय भी नहीं रहा। अस्पताल में बडे साहेबों की फौज है, लेकिन उन्हें चिंता नहीं है कि भर्ती मरीजों के साथ क्या सलूक हो रहा है। उन्हें तो बस अपनी पड़ी है। दिन-रात मजे से कट रहे हैं। कौन टेंशन पाले। उनकी यही सोच अस्पताल में भर्ती मरीजों पर भारी पड़ रही है। तिमारदार तो अब मरीजों को 'ग्राहक' के रूप में देखने लगे हैं। चाहे मरीज के पास दवा के पैसे हो या ना हो। एक बार पैसे लेने के मामले की जानकारी जब अधिकारियों को हुई तो जांच की खानापूर्ति भी की गई। अंत में कहा गया कि कोई शिकायत ही नहीं मिली तो कार्रवाई किस पर करें। जांच के बाद तिमारदारों की बांछे खिल गई। कहा, देखा न कुछ नहीं होगा।