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कहां गुम हो गई चंपा : चंपा के तट पर कभी बही थी सर्वधर्म समभाव की रसधार, नदी-मार्ग से होता था सुदूर देशों में व्यापार

प्राचीन काल में चंपानगरी अंगभूमि के राजधानी के रूप में पल्लवित-पुष्पित हुई थी। सोलह महाजनपदों में शुमार अंग की यह राजधानी चंपा नदी के तट पर अवस्थित थी।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Wed, 04 Dec 2019 01:36 PM (IST)Updated: Wed, 04 Dec 2019 02:16 PM (IST)
कहां गुम हो गई चंपा : चंपा के तट पर कभी बही थी सर्वधर्म समभाव की रसधार, नदी-मार्ग से होता था सुदूर देशों में व्यापार
कहां गुम हो गई चंपा : चंपा के तट पर कभी बही थी सर्वधर्म समभाव की रसधार, नदी-मार्ग से होता था सुदूर देशों में व्यापार

भागलपुर। प्राचीन काल से अंगभूमि को सुख-समृद्धि और धन-धान्य से अभिसिंचित करती आयी चंपा नदी के तट पर बसी चंपानगरी को विद्वानों ने अंग-संस्कृति के पालने की संज्ञा दी है। चंपा के शीतल जल और उसको छूकर बहती मृदुल बयार की गोद में सर्वधर्म समभाव की यहां ऐसी रसधार बही कि हर धर्म-सम्प्रदाय को पल्लवित-पुष्पित होने के मौके मिला। चाहे शैव, शाक्त या वैष्णव धर्मावलंबी हों अथवा बौद्ध या जैन धर्म के अनुयायी, कालक्रम में सबों ने यहां वांछित ऊंचाइयों को प्राप्त किया। तभी तो आज भी चंपा के तट पर शाक्त देवी मनसा विषहरी की गाथा के साथ जैन सूत्रों की अनुगूंज भी सुनाई पड़ती है।

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बौद्ध धर्म की बात करें तो गौतम बुद्ध का चंपा से विशेष लगाव था। अपने अंग प्रवास के दौरान वे चंपा-तट पर स्थित गग्गरा पुष्करिणी में अवस्थान करते थे। बौद्ध-ग्रंथ बुद्धचर्या, दीघनिकाय, अंगुत्तर निकाय, महावग्ग आदि का संदर्भ लेते हुए हवलदार त्रिपाठी सुहृदय (बौद्ध धर्म और बिहार) में बताते हैं कि बुद्ध के समय अंग की राजधानी चंपा काफी उन्नत अवस्था में थी। अपने जीवनकाल में बुद्ध ने सिर्फ छह नगरों का ही परिभ्रमण किया था जिनमें राजगृह, साकेत, कौशांबी तथा कुशीनगर के साथ चंपा का नाम शामिल है।

बौद्ध ग्रंथ समयुक्त निकाय में वर्णित है कि गौतम बुद्ध चंपा तट पर गग्गरा पुष्करिणी के निकट स्थित विहार में 500 भिक्षुओं, 700 उपासकों तथा कई विद्वतजनों के साथ रूके थे एवं बौद्ध संगीति की थी। चंपा के उपासकों के अनुरोध पर उन्होंने दान पर उपदेश दिये थे। बुद्ध के चंपा आगमन पर उनके परम शिष्य एवं सिद्धहस्त कवि वंगीसा ने प्रशस्ति-काव्य के पाठ किया था, वहीं चंपा के ब्राह्मण अधिपति सोनदंड ने बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर उनका शिष्यत्व ग्रहण किया था।

12 वें जैन तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य की जन्मस्थली सहित उनकी पंचकल्याणक भूमि होने के कारण चंपा जैन धर्मावलंबियों के लिये भी एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है। 24 वें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने भी यहां का परिभ्रमण कर यहां तीन वर्षामास व्यतीत किए हैं। भगवान महावीर के अलावा 23 वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा भगवान महावीर के प्रमुख 11 शिष्यों में एक सुधारमन के चरण-रज यहां पड़ चुके हैं। भगवान महावीर की प्रमुख शिष्या चन्दनबाला यहीं की थीं।

चंपा तट पर पल्लवित अन्य धर्मों की चर्चा करें तो शैव धर्म के प्रसिद्ध स्थल मनसकामना नाथ, भैरव नाथ, भूतनाथ व चन्द्रधरेश्वर नाथ सरीखे शैव मंदिर यहां पर स्थित हैं। च्काली कलकत्ते की और दुर्गा महाशय ड्योढ़ी (चंपानगर) कीच् सरीखे प्रचलित कहावत यहां शाक्तमत की महत्ता को दर्शाते हैं। चंपानगर के बिहुला-विषहरी की गाथा से तो सभी परिचित हैं। इस्लाम धर्म की बात करें तो जिले की सबसे पुरानी मस्जिद यहीं पर है।

चंपा नदी के किनारे एक ऊंचे टिल्हे पर जहांगीर कालीन मखदूम साहब का मक़बरा स्थित है। चंपा के नरगा के चर्च में मदर टेरेसा जैसी हस्ती का आगमन ईसाइयों के लिये चंपा की महत्ता को दर्शाता है। चंपानगर के सीटीएस के सामने स्थित चर्च का ऐतिहासिक महत्व रहा है।

प्राचीन काल में एक व्यवस्थित और सुनियोजित नगरी थी चंपा

महाकाव्यों एवं पौराणिक ग्रंथों के विवरणों से यह प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में चंपानगरी अंगभूमि के राजधानी के रूप में पल्लवित-पुष्पित हुई थी। सोलह महाजनपदों में शुमार अंग की यह राजधानी चंपा नदी के तट पर अवस्थित थी। चंपा की जल-धारा ने इस प्राचीन नगर को न सिर्फ नैसर्गिक स्वास्थ्य-आरोग्य व सौंदर्य प्रदान किया, बल्कि आर्थिक-व्यापारिक समृद्धि का वाहक भी बनी। चंपा नदी के मार्ग से बड़े पैमाने पर विदेशी व्यापार होता था जिसकी चर्चा कई ग्रंथों में है।

चंपा के जल से सिंचित यहां की भूमि अत्यंत उर्वर थी। इतिहासकार एनएल डे बताते हैं कि यहां का सुगंधित चावल न सिर्फ मगध सम्राट बिंबिसार के खाने की थाली में परोसा जाता था, अपितु गौतम बुद्ध के जीवन के अंतिम दिनों में उनका पथ्य भी बना था। इसी तरह पुराविद् रामचंद्र प्रसाद (आर्कियोलॉजी ऑफ चंपा एंड विक्रमशिला) बताते हैं कि चंपा की खोदाई में बड़ी संख्या में पत्थर की भट्ठियां मिली हैं जो यहां उन्नत स्वर्ण आभूषण निर्माण-व्यवसाय होने के संकेत देते हैं। अंग जनपद की बिहुला-विषहरी लोकगाथा के मुख्य पात्र एक समृद्ध व्यापारी थे जिनका बाहर के देशों में भी व्यापार था।

एनसिएंट हेरिटेज ऑफ अंग में डॉ. अजय कुमार सिन्हा बताते हैं कि चंपा के जल-मार्ग से बड़े पैमाने पर आंतरिक व विदेशी व्यापार होने के कारण यहां छोटे-बड़े व्यापारियों का जमावड़ा लगा रहता था। एक प्राचीन बौद्ध ग्रंथ के अनुसार यहां से समुद्र मार्ग से व्यापार करनेवाले व्यापारी ऐसी सामग्रियों का परिवहन करते थे जिसे आसानी से मापा, तौला और गिना जा सकता था।

बौद्ध जातक कथाओं में चंपा नदी के मार्ग से सुदूर देशों में व्यापार के विवरण मिलते हैं। डॉ. आर. पंथ के संपादन में प्रकाशित इवोल्यूशन ऑफ इंडियन कल्चर एज डिपीक्टेड इन जातका में विभिन्न जातक ग्रंथों के हवाले से बताया गया है कि उत्तरी भारत में विशेषकर बनारस एवं चंपा (भागलपुर) के व्यापारी गंगा नदी के जल-मार्ग अथवा थल-मार्ग से ताम्रलिप्ति पहुंचते थे और वहां से बंगाल की खाड़ी में तटीय क्षेत्र से होते हुए सुवर्ण भूमि जाने के क्रम में तवो बंदरगाह और फिर उसके बाद मीनम के मुहाने में पहुंचते थे। तवो बंदरगाह से ये स्थल मार्ग से बर्मा, स्याम, कंबुज और चंपा (चंपा के व्यापारियों द्वारा वहां स्थापित उपनिवेश) तक पहुंचते थे। चंपा के व्यापारियों के द्वारा गंगा मार्ग होकर बंगाल की खाड़ी से विदेशी व्यापार किए जाने का जिक्र पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी डिस्कवरी ऑफ इंडिया में किया है।

(लेखक शिवशंकर सिंह पारिजात, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के उप निदेशक पद से सेवानिवृत्त और इतिहास के जानकार हैं)


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