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Bihar Assembly Elections 2020 : मजदूरों के पलायन से बिगड़ेगा हार-जीत का गुणा-गणित

Bihar Assembly Elections 2020 प्रवासी मजदूरों को लॉकडाउन के समय जरूरत खींच लाई थी घर। अब मजबूरियां कर रहीं बेघर। वापस लौटने वालों में ज्यादातर पिछड़ा और अतिपिछड़ा वर्ग के प्रवासी शामिल हैं। 4.85 लाख प्रवासी मजदूर अनलॉक के बाद से लौट चुके हैं काम-काज की तलाश में।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Tue, 13 Oct 2020 12:56 PM (IST)Updated: Tue, 13 Oct 2020 12:56 PM (IST)
Bihar Assembly Elections 2020  : मजदूरों के पलायन से बिगड़ेगा हार-जीत का गुणा-गणित
प्रवासी मजदूरों के कारण चुनाव परिणाम प्रभावित होगा।

भागलपुर [संजय सिंह]। Bihar Assembly Elections 2020  :  कोसी और सीमांचल के मजदूरों की व्यथा-कथा ही कुछ और है। सीमांचल में जन्में महान आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों और उपान्यासों में इन इलाकों के मदजूरों की गरीबी को देखा जा सकता है। दशकों बाद भी इन मजदूरों के जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया। जो कुछ थोड़ा बदलाव आया वह ये कि पहले वे यहीं पर सेठ-साहूकारों और जमीनदारों के घर बंधुआ मजदूरी करते थे, लेकिन अब वे दूसरे प्रदेशों में रोजी-रोजगार को लेकर जिल्लत की जिंदगी जी रहे हैं। दूसरे प्रदेशों में काम करने वाले ये मजदूर कोरोना काल में घर वापसी के लिए बेचैन थे। अब यही मजदूर रोजगार के लिए पलायन करने के लिए विवश हैं।

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कोसी और सीमांचल के विभिन्न जिलों में रोज हरियाणा, पंजाब और छत्तीसगढ़ से लग्जरियस बसें आ रही हैं। इन बसों में ठूस-ठूस कर मजदूर रोजी-रोजगार के लिए बाहर जा रहे हैं। चुनाव के इस मौसम में मजदूरों का इस कदर से पलायन होना कई उम्मीदवारों के लिए खतरे की घंटी है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस बार चुनाव टिकट का वितरण सर्वे के आधार पर किया है। सर्वे में जातीय समीकरण का भी पूरा ख्याल रखा गया है। लेकिन, पिछड़ी और अतिपिछड़ी वोटरों की संख्या पलायन ने ज्यादा है। यदि इसी तरह वोटिंग से पहले तक पलायन का सिलसिला जारी रहा तो सर्वे के आधार पर टिकट वितरण और उसी के आधार पर जीत-हार की भविष्यवाणी करने वालों के लिए गुणा-गणित भारी पड़ सकता है।

रोज आ रही हैं 50 से ज्यादा लग्जरियस बसें

कोसी और सीमांचल के सात जिलों में हर रोज करीब 50 से अधिक लग्जरियस बसें आ रही हैं। सबसे अधिक बसें सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और अररिया में आ रही हैं। स्थानीय लोगों की बात करें तो यहां पर लॉकडाउन के पहले चरण के दौरान हजारों की संख्या में मजदूर पांव-पैदल व अन्य जुगात से पहुंचे थे। दिल्ली जैसे जगहों से उन्हें आने में 14 से 15 रोज लग गए थे। उस वक्त उनमें से ज्यादातर ने यहीं रहकर रोजी-रोजगार करने की बात कही थी, लेकिन पूंजी और रोजगार के अभाव में उन्हें मजबूरन वापस लौटना पड़ रहा है।

ठूंस-ठूंस कर बसों में भरे जा रहे मजदूर

कोरोना काल में मजदूरों को बसों से बिना भाड़े का ढोया जा रहा था। आज मजदूरों से दिल्ली का किराया दो हजार और पंजाब का किराया ढाई हजार रुपये तक वसूला जा रहा है। इतना ही नहीं, किराया भरने के बाद भी उन्हें सीट नसीब नहीं हो रही है। मधेपुरा के उदा किशनगंज स्थित मधुबन गांव के धीरेंद्र ऋषिदेव, सतल ऋषिदेव, सुबोद ऋषिदेव, ननकूल यादव, जवाहर राम आदि भी पंजाब जाने के लिए बस अड्डे पर आए थे। पूछने पर जवाहर राम ने कहा कि यह ठीक है कि मजदूरों को भी लोकतंत्र में वोट डालने का हक मिला है। लेकिन, जब पूरा परिवार भूखा हो तो ऐसे में लोकतंत्र नहीं पेटतंत्र की व्यवस्था करनी मजबूरी हो जाती है। मनरेगा और लाल कार्ड में इतनी धांधली है कि अधिकांश पक्के मकान और चारपहिया वाहन रखने वाले के नाम इसमे दर्ज हैं। मनरेगा में भी अमीरों के नाम जॉब कार्ड बना है। ऐसी स्थिति में जब मजदूरों को रोजगार ही नहीं मिल रहा है तो यहां रुक कर क्या करेंगे। नवमी कक्षा पास ननकू यादव का कहना है कि छात्र जीवन में उन्होंने फक्कड़ और घूमक्कड़ कवि निराला की 'दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं आज जो नहीं कही...Ó कविता को पढ़ा था। दशकों पूर्व लिखी गई यह कविता हम मजदूरों पर सटीक बैठती है। लोकतंत्र की बात तो हर नेता करते हैं पर मजदूरों के परिवार के लिए पेटतंत्र की चिंता कोई नहीं करता।

पलायन के आंकड़े

पूर्णिया : 50 हजार

सहरसा : 30 हजार

सुपौल : 50 हजार

अररिया : 50 हजार

मधेपुरा : 70 हजार

खगडिय़ा : 45 हजार

कटिहार : 1.50 लाख

किशनगंज : 40 हजार


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