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शहीद दिवस : 'ठहरिये! पहले एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल तो ले'

Martyr Day भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु समकालीन थे। भगत सिंह का जन्म २८ सितम्बर १९०७ को हुआ था। जबकि सुखदेव थापर का जन्म १५ मई १९०७ को तथा शिवराम हरि राजगुरु का जन्म २४ अगस्त १९०८ में हुआ था।

By Dilip Kumar ShuklaEdited By: Published: Sat, 23 Mar 2019 10:01 AM (IST)Updated: Sat, 23 Mar 2019 10:01 AM (IST)
शहीद दिवस : 'ठहरिये! पहले एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल तो ले'
Martyr Day: भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु।

भागलपुर [दिलीप कुमार शुक्ला]। Martyr Day: शहीद दिवस...! आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को २३ मार्च १९३१ को फांसी पर लटका दिया गया था। यह दिन देश तथा क्रांतिकारियों के लिए बेहद निराशा भरा दिन था। सभी लोग विह्वल हो गए थे। सभी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान को व्यर्थ न जाने देने का संकल्प लेकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन और तेज कर दिया। 

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भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु समकालीन थे। भगत सिंह का जन्म २८ सितम्बर १९०७ को हुआ था। जबकि सुखदेव थापर का जन्म १५ मई १९०७ को तथा शिवराम हरि राजगुरु का जन्म २४ अगस्त १९०८ में पुणे के खेड़ा में हुआ था। सुखदेव और भगत सिंह 'लाहौर नेशनल कॉलेज' के छात्र थे। दोनों एक ही सन में पंजाब के लायलपुर में पैदा हुए और एक ही साथ शहीद हो गए।

६ वर्ष की आयु में पिता का निधन हो जाने से बहुत छोटी उम्र में ही राजगुरु वाराणसी विद्या अध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने आ गये थे। इन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंन्थों तथा वेदों का अध्ययन तो किया ही लघु सिद्धान्त कौमुदी जैसे क्लिष्ट ग्रन्थ को बहुत कम आयु में ही कण्ठस्थ कर लिया था। इन्हें व्यायाम का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध-शैली के बडे़ प्रशंसक थे। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज भी थे।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने देश की आजादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, वह आज भी युवकों के लिए प्रेरणादायी है। इन्होंने सेंट्रल असेम्बली में बम फेंककर भी वहां से नहीं भागे। 

गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद भगत सिंह गांधी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गांधी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण देश के तमाम नवयुवकों की भाँति उनमें भी रोष हुआ और अन्तत: उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग अपनाना उचित समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। भगत सिंह गदर आंदोलन से गहरे रूप से प्रभावित थे और करतार सिंह सराभा को अपने नायक के रूप में मानते थे।

अमृतसर में १३ अप्रैल १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। उस समय भगत सिंह करीब बारह वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये थे। 

लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद बिस्मिल सहित चार क्रान्तिकारियों को फाँसी तथा १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था।

दूसरी तरफ, वाराणसी में विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु भी चंद्रशेखर आजाद के संपर्क में आ गए। चन्द्रशेखर आजाद की पार्टी के अन्दर इन्हें रघुनाथ के छद्म-नाम से जाना जाता था। 

वर्ष १९१९ से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी १९२८ में “साइमन कमीशन” मुम्बई पहुंचा। पूरे देश में साइमन कमीशन का विरोध हुआ। ३० अक्टूबर १९२८ को कमीशन लाहौर पहुंचा। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढ़ती जा रही थी। इतनी अधिक भीड़ और उनका विरोध देख सहायक अधीक्षक साण्डर्स ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया। इस लाठी चार्ज में लाला लाजपतराय बुरी तरह घायल हो गए, जिसकी वजह से १७ नवम्बर १९२८ को लालाजी का देहान्त हो गया।

चूंकि लाला लाजपतराय भगत सिंह के आदर्श पुरुषों में से एक थे, इसलिए उन्होंने उनकी मृत्यु का बदला लेने की ठान ली। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ ने भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद और जयगोपाल को यह काम दिया। 

सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर, जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वह ख़राब हो गयी हो। जयगोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डीएवी स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।

१७ दिसंबर १९२८ को करीब सवा चार बजे एएसपी सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठे। इसके बाद भगत सिंह ने तीन-चार गोली दागकर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भागने लगे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया और कहा- आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा। नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को पूरे देश में एक क्रांतिकारी की पहचान दिला दी।

इस घटना के बाद अंग्रेजी सरकार बुरी तरह बौखला गई। हालात ऐसे हो गए कि सिख होने के बाद भी भगत सिंह को केश और दाढ़ी काटनी पड़ी। सन् १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में राजनीतिक बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में बढ़-चढ़कर भाग भी लिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने छाया की भाँति इन तीनों को सामरिक सुरक्षा प्रदान की थी।

उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक ‘सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी। यह बहुत ही दमनकारी क़ानून था और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।

लेकिन चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों को यह हरगिज मंजूर नहीं था। उन्होंने निर्णय लिया कि वह इसके विरोध में संसद में एक धमाका करेंगे जिससे बहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार को उनकी आवाज सुनाई दे। इस काम के लिए भगतसिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त को कार्य सौंपा गया। ८ अप्रैल १९२९ के दिन जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंक दिया। 

भगतसिंह ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद,  साम्राज्यवाद का नाश हो और इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राज्यवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।

राजगुरु को पूना से तथा सुखदेव को लाहौर से गिरफ्तार किया गया। भगत सिंह और उनके साथियों पर ‘लाहौर षड्यंत्र’ का मुकदमा भी जेल में रहते ही चला। अदालत ने क्रांतिकारियों को अपराधी सिद्ध किया तथा ७ अक्टूबर १९३० को निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली। हालांकि, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने फांसी दिए जाने के फैसले को बदलने के लिए दया याचिका दायर की। उस दया याचिका को १४ फरवरी १९३१ को न्याय परिषद ने खारिज कर दिया। 

जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं।

इसके बाद २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं और उसे पूरा पढ़ने का उन्हें समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - ठीक है अब चलो। और मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे गाते हुए तीनों क्रांतिकारी फांसी को चूमने निकल पड़े।

२३ मार्च १९३१ की मध्यरात्रि को अंग्रेजी हुकूमत ने भारत के तीन सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया था। ऐसा कहा जाता है कि उस शाम जेल में पंद्रह मिनट तक इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूंज रहे थे। 

फांसी के समय यूरोप के डिप्टी कमिश्नर भी शामिल थे। जितेंदर सान्याल की लिखी किताब 'भगत सिंह' के अनुसार ठीक फांसी पर चढ़ने के पहले के वक्त भगत सिंह ने उनसे कहा, 'मिस्टर मजिस्ट्रेट आप बेहद भाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं।'

अदालती आदेश के मुताबिक इन तीनों को २४ मार्च १९३१ को सुबह आठ बजे फांसी लगाई जानी थी, लेकिन २३ मार्च १९३१ को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातों रात ले जाकर व्यास नदी के किनारे जला दिए गए। अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों की बढ़ती लोकप्रियता और २४ मार्च को होनेवाले संभावित विद्रोह की वजह से २३ मार्च को ही फांसी दे दी। 

अंग्रेजों ने इन वीर क्रांतिकारियों को तो खत्म कर दिया पर वह भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के विचारों को खत्म नहीं कर पाए। फांसी से पहले ये क्रांतिकारी नौजवान देश की आजादी की नींव रख चुके थे। देश में इन तीनों क्रांतिकारियों की सिर्फ पहचान ही नहीं है, बल्कि वे आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं। दुश्मनों की नजर आज भी जब देश की तरफ टेढ़ी होती है तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के स्मरण मात्र से देशवासियों में ऊर्जा भर आती है। जिस साहस से इन क्रांतिकारियों ने शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, वह सदैव देश के नौजवानों को दिशा देता रहेगा।


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