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स्वयंभू हैं यहां का बाबा तिल्हेश्वर नाथ महादेव, दूर-दराज से पहुंचते हैं भक्त

बाबा के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं लौटता। दिन व दिन लोगों की आस्था बढ़ती जा रही है। यहां सुल्तानगंज मुंगेर घाट अगुवानी आदि जगहों से गंगा जल भरकर भक्त कांवर चढ़ाते हैं।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Sun, 13 Sep 2020 04:19 PM (IST)Updated: Sun, 13 Sep 2020 04:19 PM (IST)
स्वयंभू हैं यहां का बाबा तिल्हेश्वर नाथ महादेव, दूर-दराज से पहुंचते हैं भक्त
स्वयंभू हैं यहां का बाबा तिल्हेश्वर नाथ महादेव, दूर-दराज से पहुंचते हैं भक्त

सुपौल, जेएनएन। कोसी के इलाके में भी सुप्रसिद्ध शिवालयों की कोई कमी नहीं। लेकिन बाबा तिल्हेश्वर नाथ की महिमा निराली है। जिला मुख्यालय से लगभग 10 किमी की दूरी पर सुखपुर गांव में बाबा का मंदिर अवस्थित है। यहां शिवलिंग स्वयंभू है। लोगों की मुरादें पूरी होने के कारण दर्शन-पूजन के लिए यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।

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गाय उक्त स्थल पर देने लगती थी दूध

तिल्हेश्वर स्थान के संबंध में कई रोचक घटना एवं जनश्रुतियां सुनी सुनाई जाती है। मंदिर स्थित शिवलिंग के संबंध में कहा जाता है कि यह स्वयंभू है। कहा जाता है कि पहले यह क्षेत्र घने जंगलों से आच्छादित था और क्षेत्र के चरवाहे गाय चराया करते थे। किसी स्थान विशेष पर गाय स्वत: दूध देने लगती थी। निरंतर ऐसा होते देख चरवाहों ने मिलकर उक्त स्थल की सफाई की और आसपास के गांव वालों को बताया। उक्त स्थल की खुदाई की गई और शिवलिंग प्रकट हुआ। वैसे तो प्रत्येक दिन यहां शिवभक्तों की भीड़ जमा होती है। लेकिन रविवार और सोमवार को यहां जलाभिषेक का विशेष महत्व माना जाता है। ग्रामीणों का मानना है कि मंदिर उंचे टीले पर बनाया गया था। अत: टिलेश्वर कहलाया जो कालांतर में तिलेश्वर फिर तिल्हेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ परंतु क्षेत्र के लोगों के द्वारा तिलेश्वर, तिलकेश्वर आदि नामों से भी पुकारा जाता है। मंदिर की स्थापना भी इसके प्राचीनतम होने की पुष्टि करता है। वर्तमान शिवलिंग जमीन के तल से लगभग दस फीट की गहराई में है।

आस्था का है केंद्र

ऐसी मान्यता है कि बाबा के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं लौटता। नतीजा है कि दिन ब दिन लोगों की आस्था बढ़ती जा रही है। यहां सुल्तानगंज, मुंगेर घाट, अगुवानी आदि जगहों से गंगा जल भरकर भक्त कांवर चढ़ाते हैं। इधर बाबा कपिलेश्वर नाथ महादेव स्थल से खैरदाहा नदी का जल भरकर चढ़ाए जाने की भी परंपरा चल रही है।


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