कहां गुम हो गई चंपा : चंपा बोली-अब तो मुझे नाला नहीं, नदी कहो
याद करें। ठीक सात दिन पहले। इसी चंपा का दर्द भरा सवाल था मैं नदी हूं..या नाला। उसे जवाब मिल गया था। हजारों की भीड़ उस चंपा तट पर आई थी जो नदी है। वह नाला नहीं है।
भागलपुर [अश्विनी]। कीचड़ में लथपथ दर्द से कराह रही चंपा ने वर्षो बाद जैसे धीरे-धीरे आंखें खोली हो। हवा ने उससे हौले-हौले कहा हो, जरा देख तो..। कौन-कौन आए हैं। तट पर हजारों बच्चे, युवा, महिलाएं, गांव-शहर के बूढ़े-बुजुर्ग खड़े थे। कह रहे थे-देखो! हम आ गए।
याद करें। ठीक सात दिन पहले। इसी चंपा का दर्द भरा सवाल था, मैं नदी हूं..या नाला। उसे जवाब मिल गया था। हजारों की भीड़ उस चंपा तट पर आई थी, जो नदी है। वह नाला नहीं है। बुधवार को चंपा के पुनर्जीवन के लिए समाज के लोगों ने, स्कूल-कॉलेज के बच्चों ने जो रैली निकाली, यह एक नदी के प्रति संवेदना का प्रतीक था। वे जैसे कह रहे हों कि अभी तो आगाज है। मासूम बच्चों की तनी हुई मुट्ठियां, उनके नारे..चंपा! हम तुम्हें बचाने आ गए, वी वांट चंपा..। यह यूं ही नहीं था। इसका गहरा संदेश है। समाज अभी सोया नहीं है, वह जाग रहा है। उसे चिंता है अपनी विरासत की। आज की उस पीढ़ी की संवेदनशीलता तो और भी बढ़कर, जो बता गई कि वह सिर्फ मोबाइल में उलझी हुई नहीं, सामाजिक सरोकार के प्रति भी जाग्रत है। जब यह सब हो तो चंपा उम्मीदों से क्यों न भरे। उसने शायद पहली बार वह लंबी कतार देखी, जो चंपा चंपा पुकार रही थी।
यह पुकार भरोसा दिला गई कि वह अभी जीवित है, उसमें प्राण भी हैं। वर्षो से जो जख्म मिले हैं, उस पर मरहम लगाने उसके हजारों बेटे-बेटियां आज तैयार खड़े हैं, क्योंकि वह उनकी मां है। जलपुरुष राजेंद्र सिंह भी तो यही कहकर गए हैं कि नदी मां होती है। जब मां के दर्द ने उद्वेलित कर दिया हो तो जख्म का इलाज भी होगा। बच्चे कह रहे थे कि इसकी यह हालत हो गई है, इससे वाकिफ नहीं थे। दैनिक जागरण ने अपने अभियान के माध्यम से समाज का ध्यान इस ओर आकृष्ट करने की एक कोशिश की। लोगों ने इस नदी के कायाकल्प की शपथ ली। चंपा का अपनी अविरल धारा के साथ गंगा में मिलन भी होगा, उम्मीद की किरणों निकल पड़ी हैं, क्योंकि गांव-शहर हर तरफ से यह आवाज आई है-चंपा तू नदी है! चंपा भी मानों नाला कहने वालों से बोल रही हो-अब तो मुङो नदी कहो!
(लेखक दैनिक जागरण भागलपुर के संपादकीय प्रभारी हैं।)