लखदीपा मंदिर : पुरातात्विक अवशेष बीते स्वर्णिम दिनों की दे रही गवाही, जानिए ऐतिहासिक महत्व
इतिहासकारों ने लखदीपा मंदिर में दीप जलाने का निर्णय लिया है।इतिहासकारों ने कहा कि पुरातात्विक अवशेष बीते स्वर्णिम दिनों की गवाही दे रही गवाही है। मंदार विकास परिषद सहयोग करेंगे।
भागलपुर (जेएनएन)। इतिहासकारों ने फिर से लखदीपा मंदिर में दीप जलाने का निर्णय लिया है। इस कार्य में मंदार विकास परिषद के कार्यकर्ता सहयोग करेंगे। अंग जनपद के ऐतिहासिक सह सांस्कृतिक धरोहर को बचाने एवं जनता में जागरूकता लाने के उद्देश्य से तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. बिहारी लाल चौधरी के नेतृत्व में इतिहासकारों की टीम लखदीपा मंदिर का भ्रमण किया।
टीम में शिवशंकर सिंह पारिजात, डॉं. रविशंकर कुमार चौधरी, प्रो. रमन सिन्हा के साथ मंदार विकास परिषद के उदयेश रवि थे। लखदीपा मंदिर के प्रांगण में सबों ने निर्णय लिया कि दीपावली से पूर्व मंदिर की साफ-सफाई कर स्वच्छता अभियान चलाया जाए। सफाई कर दीप जलाकर क्षेत्रीय जनता को धरोहर बचाने का संदेश दिया जाए। इस योजना को सफल बनाने के लिए मंदार विकास परिषद ने योगदान करने का आश्वासन दिया है।
शिवशंकर सिंह पारिजात के अनुसार अंगक्षेत्र के बांका जिला के बौंसी में समुद्र मंथन का साक्षी रहे मंदार पर्वत की तलहटी में स्थित 'लखदीपा मंदिर' में कभी दीपावली के अवसर पर एक लाख दीये जलाए जाते थे। अनेकानेक सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओं से महिमामंडित मंदार तथा लखदीपा मंदिर को भले ही लोग आज भूलते जा रहे हैं, पर यहां के पुरातात्विक अवशेष बीते स्वर्णिम दिनों की गवाही दे रही है। एक समय में विष्णुस्वरुप मंदार मधूसूदन और श्री-समृद्धि की देवी महालक्ष्मी की कृपा से सिक्त होने के कारण यह सदा धन-धान्य से परिपूर्ण रहता था। उन दिनों यहां दीपोत्सव अति आनंदपूर्वक मनाया जाता था।
पुरातन काल में मंदार क्षेत्र में स्थित बौंसी एक समृद्ध नगरी थी जो 'वालिसा नगर' नाम से जाना जाती थी जिसका व्यापार उन्नत अवस्था में था। उन दिनों में बौंसी के बारे में यह कथन प्रचलित था कि इस नगर में 55 बाजार, 53 रास्ते और 88 तालाब थे। यहां के समृद्ध निवासी दीपावली के अवसर पर मंदार के लखदीपा मंदिर में एक लाख दीपक जलाते थे। भागलपुर जिला गजेटियर, 1911 बताता है, पहाड़ (मंदार) की तलहटी के निकट एक भवन है, जो अब एक खंडहर-सा हो गया है, जिसकी दीवारों पर अनगिनत छोटे-छोटे चौकोर खाने बने हुए हैं जो स्पष्ट तौर पर दीपकों को रखने के लिए बनाए गए थे।
यहां की प्रचलित परंपरा के अनुसार दिवाली की रात को स्थानीय निवासियों के द्वारा इन चौकोर खानों में एक लाख दीये जलाए जाते थे, जबकि प्रत्येक परिवार से यहां मात्र एक ही दीपक जलाने की अनुमति थी। लक्षदीप मंदिर, जिसे स्थानीय लोग 'लखदीपा मंदिर' कहते हैं, से थोड़ी दूर पर एक प्रस्तर निर्मित भवन के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं, जिसपर झाड़-झंखाड़ उग आए हैं।