एक तरफ गर्मी की तपिश तो दूसरी ओर शादी व चुनाव
औरंगाबाद। गर्मी का मौसम भी गजब का होता है। एक तरफ लोग तपिश से परेशान रहते हैं, दूसरी तरफ रिश्तों
औरंगाबाद। गर्मी का मौसम भी गजब का होता है। एक तरफ लोग तपिश से परेशान रहते हैं, दूसरी तरफ रिश्तों को निभाना मजबूरी होती है। ज्यादातर लगन भी इसी मौसम में होते हैं। दाउदनगर जैसे छोटे से शहर में प्रत्येक लगन के दिन 10 से 15 शादियां हो रही हैं। जिले भर में तो यह संख्या सैकड़ों में हो जाती है। भयंकर तपिश एवं लू के चलते शहर की सड़कों पर दिन भर सन्नाटा भले ही पसरा रहता है लेकिन शाम होते ही दूल्हे राजाओं की सवारियां अलग-अलग इलाकों में निकलने से गुलजार हो जाता है।
वहीं दूसरी और नगर परिषद चुनाव की सरगर्मी चल रही है। गर्मी की तपिश में सभी उम्मीदवार कोई भी मौका नहीं छोड़ रहे हैं तरह-तरह के वोटरों को प्रलोभन दिखा रहे हैं। सब्जबाग दिखाकर रिझाने में चूक नहीं रहे हैं। वहीं एक तरफ एक और चर्चा जोरों पर है एक के नामांकन रद होने की। कोई प्रत्याशी इसे अपने पक्ष में फायदा से जोड़ रहा है तो कोई नुकसान से। पर असली नुकसान तो रद होने वाले प्रत्याशी का हुआ है। जो बड़ी धूमधाम से नामांकन कराए थे। अपनी जीत के दावे भी कर रहे थे। कुछ खर्चा कर दिए सो अलग। पर कहावत है अब पछताए क्या होत जब चिड़ियां चुंग गई खेत। वहीं एक मजेदार वाक्या शहर में चर्चा का विषय बना हुआ है, दरअसल एक साहब अपने समर्थकों के साथ नामांकन कराने अनुमंडल कार्यालय पहुंचे सभी कागजात जमा कर दिए पर अचानक उनके प्रस्तावक हो गए गुम, फोन पर फोन लगाए पर प्रस्तावक नही मिले। समय खत्म होते ही वे नामांकन करने से चूक गए। इस बात की तरह-तरह की चर्चा शहर में हो रहा है। परिवर्तन चाह रहे हैं लोग
कहते हैं वक्त परिवर्तनशील होता है। बस इसे पहचान लिया जाए और सटीक समय पर फैसला कर लिया जाए तो मंजिल और मकसद हासिल करने में देर नहीं लगती। कुछ ऐसा ही बदलाव नजर आ रहा है अपने शहर में। वे सियासी और पढ़े-लिखे तमाम लोग जिन्होंने खासा वक्त गुजारा है अपनी-अपनी जमात में बदलाव के लिए अब नए सिरे से परिवर्तन चाहने लगे हैं। इनमें वे भी हैं जो कुछ समय पहले अपने मकसद के लिए बगावत करने में भी देरी नहीं की तो वहीं वे भी हैं जिन्होंने वक्त की नजाकत को समझा और चुप्पी लगा गए। मकसद इनका पहले भी वही था और अब भी वही है। यानी समाज की निष्काम सेवा। विकसित समाज के निर्माण के लिए कोई दायरा न हो और कोई सीमा न हो जिससे कोई रुकावट न आए काम में। इसलिए ऐसे तमाम जमात के लोगों ने बना ली अपनी अलग पांत। अभी तो'इब्तिदा'है, देखना है'आगाज'कैसे होता है। इनमें तमाम ऐसे लोग भी हैं, जिनके मकसद को क्रूर वक्त ने हल नहीं होने दिया। मंजिल की तलाश इन्हें भी है और वे पांत के साथ कदम-ताल करने को बेकरार हैं। दूसरी ओर उत्साही नौजवानों की टोली भी मौजूद है, जिसे न पद की चाह और न ही प्रतिष्ठा की। हमारी तो बस यही ख्वाहिश है बदलाव के लिए कामयाब हो ये पांत और हल हो इसका असली मकसद। और अंत में
वैसे तो सभी उम्मीदवार अपनी अपनी जीत के दावे कर रहे हैं पर जब तक आखिरी मुहर न लग जाए कुछ भी कहना मुश्किल है। खैर चुनाव परिणाम आने से पहले सभी दावेदार जीत रहे हैं।