रामरूपी ज्ञान की गंगा में डुबकी लगाने से सफल हो जाता है जीवन
अरवल। गंगा में डुबकी लगाने से तन तो साफ हो सकता है लेकिन राम रूपी ज्ञान की गंगा में डुबकी लगाने से मन के साथ-साथ विचार साफ हो जाता है।
अरवल। गंगा में डुबकी लगाने से तन तो साफ हो सकता है, लेकिन राम रूपी ज्ञान की गंगा में डुबकी लगाने से मन के साथ-साथ विचार साफ हो जाता है। धनवान की पूजा नहीं होती है। लोग धन कमाने के साथ-साथ धर्म नहीं कमा सके, तो जीवन व्यर्थ है। जिस तरह प्राण के बिना शरीर का कोई मोल नहीं होता है, उसी तरह जीवन में राम नहीं है, तो उसका जीवन बेकार है। उक्त बातें स्वामी श्री रंग रामानुजाचार्य जी महाराज ने महेंदिया स्थित बालाजी बेंकेटेश्वर धाम में आयोजित राम कथा के छठे दिन श्रद्धालुओं को कथा का रसपान कराते हुए कहा। उन्होंने अपने प्रवचन में भगवान श्री राम के प्रति केवट का प्रेम पर चर्चा करते हुए कहा की भगवान जब नौका से पार हो रहे थे, तब प्रभु ने पार करने के बाद केवट को उपहार देने लगे। तब केवट ने कहा कि नहीं प्रभु आज मैं आपका नौका पार लगाया हूं। कल आप ही मेरा नौका पार लगा दीजिएगा। उन्होंने भरत और श्री राम का प्रेममयी विलाप का वर्णन करते हुए कहा कि जब भरत अपने ननिहाल से लौटे तब उन्होंने अयोध्या का हाल बेहाल देखा। उन्होंने जब किसी से पूछना चाहा तब अयोध्या के लोगों ने उनसे मुंह फेर लिया। सुमंत जी से पूछने पर भी उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। जब महल में पहुंचे तब उन्हें यह समाचार मिला कि उनके माता कैकई के कहने पर भगवान श्री राम को चौदह वर्ष वनवास और उनका राजतिलक होना है। ऐसा सुनते ही कुछ समय के लिए भरत मूिर्च्छत हो गए। अभी यह शोक समाचार सुने ही थे फिर उन्हें सुनने को मिला कि पिताजी स्वर्ग सिधार गए हैं। वह अपने माता के कक्ष में जाकर कैकई से कहा की हाय तुम ने मुझे मार डाला। मैं पिता से सदा के लिए बिछड़ गया और भाई श्री राम से विलग हो गया ।तुमने पिता को परलोक वासी और श्रीराम का तपस्वी बनाकर मुझे महान दुख दे दिया है। तू कुल का विनाश करने के लिए कालरात्रि बनकर आई है। श्रीराम अपनी माता के समान तुम्हारे साथ बर्ताव करते थे। तेरा विचार पाप पूर्ण है । मैं तेरी इच्छा कदापि पूरा नहीं करूंगा । मैं वन जाकर अपने प्रिय भाई श्रीराम को लौटा लाऊंगा। मैं उनका दास बनकर स्वस्थ चित्त से जीवन व्यतीत कर लूंगा। उन्होंने कैकई की निदा करते हुए कठोर वचन कहा क्रूर हृदया कैकई तुम मेरे मरे हुए महाराज के लिए रोना मत, और मुझे मरा हुआ समझकर जीवन भर पुत्र के लिए रोती रहना। इतना कह कर वशिष्ठ को साथ लेकर वन के लिए प्रस्थान कर गए। भरत विलाप करते हुए अत्यंत दुखी हो श्री राम के पास पहुंचने से पूर्व पृथ्वी पर गिर पड़े। और उन्होंने दीन वाणी में कहा हे आर्य! उसके बाद उनकी वाणी नहीं निकली। उनकी आंखों से आंसुओं की धारा निकल रही थी। श्रीराम के नेत्रों से आंसुओं की धारा बहने लगी। उसके बाद भरत भगवान श्री राम से अयोध्या लौटने के लिए प्रार्थना करने लगे। भगवान श्रीराम ने भारत को पिता की आज्ञा पालन करने की बात कही जो पिता आज्ञा देकर स्वर्ग सिधार गए मैं उनकी आज्ञा को कैसे ना मानूं। इस तरह भरत के बार-बार कहने पर भी श्री राम अपने पिता का वचन को याद दिला कर भरत को लौटाने लगे। भरत ने अपने भाई श्री राम से कहा कि आर्य दो स्वर्ण विभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में समर्पित है , आप इन पर अपने चरण रख दें यही संपूर्ण जगत के योग क्षेम के वाहन करेंगी ।श्री राम ने उन पादुकाओं पर चढ़कर उन्हें अलग कर दिया।और महात्मा भरत को सौंप दिया।भरत ने उन पादुकाओं को प्रणाम करके कहा कि वीर रघुनंदन! मैं भी 14 वर्षों तक जटा और चीर धारण कर फल मूल का आहार करता हुआ आपके आगमन की प्रतीक्षा में नगर से बाहर ही रहूंगा। यदि 14 वर्ष पूर्ण होने पर नूतन वर्ष के प्रथम दिन ही मुझे आपका दर्शन नही मिलेगा तो मैं जलती हुई आग में प्रवेश कर जाऊंगा ।