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जोकीहाट उपचुनाव: भितरघात से बचें तब न आमने-सामने लड़ेंगे ये सियासी सूरमा

जोकीहाट उपचुनाव को लेकर एक ओर जहां जदयू और राजद में आर-पार की लड़ाई है वहीं इस सियासी घमासान के बीच वहां की आम जनता इस चुनाव को लेकर कोई खास उत्साहित नहीं है। जानिए इस रिपोर्ट में

By Kajal KumariEdited By: Published: Sat, 26 May 2018 10:04 AM (IST)Updated: Sat, 26 May 2018 10:39 PM (IST)
जोकीहाट उपचुनाव: भितरघात से बचें तब न आमने-सामने लड़ेंगे ये सियासी सूरमा
जोकीहाट उपचुनाव: भितरघात से बचें तब न आमने-सामने लड़ेंगे ये सियासी सूरमा

अररिया [विकाश चंद्र पाण्डेय]। वादों की बरसात में कलुष धुल जाने की उम्मीद थी, किंतु सियासी चतुराई से मतदाताओं का मिजाज उखड़ा-उखड़ा सा है। अपनी बदहाली और इलाके की दुर्गति पर वे फट पड़ते हैं, लेकिन गोलबंदी और मतदान का जिक्र छिड़ते ही ऐसी चुप्पी साध लेते हैं जैसे कि मौन व्रत हो।

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बहुत कुरेदने पर इतना भर सुनने को मिला कि अब तो सब कुछ निपट गया बाबू। दो-चार दिन और बाकी हैं, आप भी देख-सुन लीजिएगा। जोकीहाट का फैसला आखिरी रात में होता रहा है और इस बार भी वैसा ही होगा। फरमान और गोलबंदी के आगे दूसरे समीकरण ध्वस्त हो जाएंगे।

जोकीहाट में अब तक हवेली का फरमान चलता रहा है और गोलबंदी जाति की, लेकिन इस बार विकास की बातें घुसपैठ कर गई हैं। फरमान जारी करने वाले बुजुर्गवार रहे नहीं और हवेली में घरेलू महत्वाकांक्षा की एक दीवार भी खड़ी है, जो राजद प्रत्याशी शाहनवाज आलम के लिए परेशानी का सबब है।

जदयू उम्मीदवार मुर्शीद आलम इसे भुनाने की कोशिश कर रहे। जोकीहाट में अब तक मुकाबला आरपार का रहा है। 2010 की तरह कभी-कभार तीसरा कोण भी बनता रहा है। राजद की कोशिश मुकाबले को आमने-सामने का बनाए रखने की है, जबकि जदयू अपनी सीट को बचाने के लिए बिखरे वोटों को सहेजने के प्रयास में है।

राज्य सरकार के मंत्रियों का लगातार दौरा उस जाति और जमात को रिझाने की कवायद है, जो खानों-खांचों में बंटकर गुंजाइश छोड़ जाती है। राजद के भितरघात और जदयू के बिखरे मतदाताओं के दम पर जन अधिकार पार्टी के गोशुल आजम को भी उम्मीद है। 

मक्के की मड़ाई करते मतदाताओं के लिए प्रत्याशियों की जीत-हार के समीकरण का आकलन मुश्किल है। रोजी-रोटी के फिक्र में दोहरे हो रहे मतदाता चुनावी चर्चा में बेमन से शामिल होते हैं। शायद यह ठगे जाने की खीझ है। नहीं चाहते हुए भी कई मतदाता इसलिए वोट करेंगे, क्योंकि उनकी जिंदगी में फरमान और गोलबंदी की गहरी पैठ है। कुरेदने पर यह तकलीफ भी जाहिर हो जा रही। जनता तो किसी को पांच साल के लिए चुनती है, लेकिन कुदरत पर वश नहीं।

तस्लीमुद्दीन साहब दुनिया से रुखसत हुए तो सरफराज को अररिया लोकसभा की नुमाइंदगी नसीब हुई, लेकिन उन्होंने जो पहलू बदला, वह जनता की मर्जी नहीं थी! जनता ने तो उन्हें तीर थमाया था, वे लालटेन उठा लिए। यह उस मतदाता की भड़ास है, जो पिछले चुनाव में सरफराज को वोट दे चुका है। इस बार की अपनी मंशा के बारे में वह दम साध जाता है।

हिदायत यह कि राजद पहले भितरघात से निपट ले। अभी तो घर में ही शह-मात की बिसात है। इशारे साफ हैं। अररिया से सांसद चुने जाने के बाद सरफराज जोकीहाट से अपने पुत्र को प्रत्याशी बनाना चाह रहे थे। किंतु राजद ने उनके छोटे भाई शाहनवाज को मैदान में उतारा। भाई के पक्ष में सरफराज खुद प्रचार कर रहे, लेकिन आंख-कान रखने वाले तो हर हलचल पर चौकस हैं। दो-तीन रोज पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सभाएं कर गए हैं। उन्होंने भी पैतरा बदलने की शिकायत सरेआम की। 

दोनों दलों के आधार वोट से पिछली बार महागठबंधन की जीत आसान हो गई थी। अब आमने-सामने हैं। जदयू को भाजपा के वोटों की भी आस है। निर्णायक मुस्लिम ही हैं, जिनकी आबादी करीब 70 फीसद है, किंतु पप्पू यादव की पार्टी को भी कम नहीं आंका जा सकता। पप्पू पहले लालू के सिपहसालार थे। जाहिर है कि उनकी पैठ उन मतदाताओं में ज्यादा हो सकती है, जो कभी राजद के थे।


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