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Maharashtra Political Crisis: क्या है दल बदल विरोधी कानून? क्या बागी शिवसैनिकों की विधायकी खतरे में

What is the anti defection law वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दलबदल विरोधी कानून’ पारित किया गया और इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में दलबदल की कुप्रथा को समाप्त करना था।

By Vijay KumarEdited By: Published: Tue, 21 Jun 2022 07:41 PM (IST)Updated: Wed, 22 Jun 2022 05:43 PM (IST)
Maharashtra Political Crisis: क्या है दल बदल विरोधी कानून? क्या बागी शिवसैनिकों की विधायकी खतरे में
महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री एकनाथ शिंदे के एक कदम से उद्धव ठाकरे की सरकार मुश्किल में

नोएडा, आनलाइन डेस्क। महाराष्ट्र में मचे सियासी भूचाल के बीच शिवसेना के बागी नेता और महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री एकनाथ शिंदे के 40 विधायकों के समर्थन का दावा करने के बाद पार्टी विधायकों को अल्टीमेटम जारी किया गया है और गठबंधन के तीन सहयोगियों कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना द्वारा बैक-टू-बैक बैठकें की जा रही हैं। शिवसेना के मुख्य सचेतक सुनील प्रभु ने पार्टी के सभी विधायकों को एक पत्र जारी कर बुधवार शाम को होने वाली एक महत्वपूर्ण बैठक में उपस्थित रहने को कहा है।

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बागी विधायकों में 33 शिवसेना के और सात निर्दलीय विधायक हैं। कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दलबदल पर भी सदस्य को अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकता। दल बदल विरोधी कानून के मुताबिक, एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय की अनुमति है बशर्ते उसके कम से कम दो तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों।

मतलब, अगर किसी पार्टी से दो तिहाई सदस्य टूटकर दूसरी पार्टी में जाते हैं तो उनका पद बना रहेगा, यानी विधायक का पद बचा रहेगा, लेकिन अगर संख्या इससे कम होती है तो उन्हें विधायक के पद से इस्तीफा देना पड़ेगा। ऐसे में न तो दलबदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर। इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को इस कानून से छूट प्राप्त है।

महाराष्ट्र की बात की जाए तो विधानसभा में शिवसेना के पास 55 विधायक हैं, अगर बागी विधायक विलय करना चाहते हैं तो 55 का दो तिहाई, यानी 37 विधायकों को एक साथ दूसरी पार्टी में जाना होगा। अगर ऐसा होता है तो उन विधायकों पर कोई संवैधानिक कार्रवाई नहीं होगी। उनकी योग्यता बनी रहेगी।

जानें क्या है दल बदल विरोधी कानून

वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दलबदल विरोधी कानून’ पारित किया गया और इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में दलबदल की कुप्रथा को समाप्त करना था। इस कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है यदि:

  • एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
  • कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के रुख के विपरीत वोट किया जाता है।
  • कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है
  • छह महीने की अवधि के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है
  • कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है। अध्यक्ष जिस दल से है, यदि शिकायत उसी दल से संबंधित है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है

इसलिए पड़ी जरूरत, समस्या जस की तस

  • स्वाधीनता के कुछ ही वर्षों के भीतर यह अनुभव किया जाने लगा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी है। विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं। अक्टूबर, 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर तीन बार दल बदलकर इस मुद्दे को राजनीति की मुख्यधारा में ला दिया था। उस दौर में ‘आया राम गया राम’ की राजनीति देश में काफी प्रचलित हो चली थी। अंतत: 1985 में संविधान संशोधन कर यह कानून लाया गया। इसके बाद भी समस्या जस की तस रही।
  • मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों के दलबदल से कमलनाथ की 15 माह पुरानी सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी। 2019 में गोवा में कांग्रेस और सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के 15 में से 10 विधायकों ने अपनी-अपनी पार्टी का भाजपा में विलय कर लिया था। राजस्थान में बसपा के सभी छह विधायक कांग्रेस में चले गए। यह क्रम चलता रहता है। जब दलबदल की समस्या जस की तस कायम है तो फिर दलबदल निरोधक कानून का क्या औचित्य? उलटे इससे जनप्रतिनिधियों की विधायी सदनों में अपने दल के विरुद्ध आवाज उठाने की स्वतंत्रता चली गई।

समझें, महाराष्ट्र विधानसभा का अंकगणितः

महाविकास आघाड़ी -

शिवसेना - 55

राकांपा - 53

कांग्रेस - 44

(कुल विधायक - 152)

भाजपा - 106

छोटी पार्टियां एवं निर्दलीयः

बहुजन विकास आघाड़ी - 03

समाजवादी पार्टी - 02

प्रहार जनशक्ति पार्टी - 02

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना - 01

जन सुराज्य पार्टी - 01

राष्ट्रीय समाज पक्ष - 01

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) - 01

निर्दलीय - 16

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भाजपा के अपने 106 विधायकों के साथ उसके समर्थक 06 निर्दलीय मिलाकर उसकी ताकत 112 तक पहुंचती है, लेकिन पिछले राज्यसभा चुनाव में उसे 123 विधायकों का समर्थन मिला। जबकि एक दिन पहले हुए विधान परिषद चुनाव में 134 विधायक उसके साथ नजर आए। जबकि महाराष्ट्र विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 145 विधायकों की संख्या आवश्यक होती है। जितनी बड़ी संख्या में निर्दलीय शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे के साथ नजर आ रहे हैं, यदि वे सभी भाजपा के साथ आ जाएं तो राज्य की राजनीति में बड़ी उलटफेर होते देर नहीं लगेगी।


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