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सऊदी अरब और ईरान में वर्चस्व की लड़ाई, पश्चिम एशिया में गहराया संकट

लेबनान के मुद्दे पर ईरान और सऊदी अरब एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। सऊदी अरब का आरोप है कि ईरान जानबूझकर मिडिल इस्ट में तनाव पैदा कर रहा है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Mon, 13 Nov 2017 01:18 PM (IST)Updated: Mon, 13 Nov 2017 04:46 PM (IST)
सऊदी अरब और ईरान में वर्चस्व की लड़ाई, पश्चिम एशिया में गहराया संकट
सऊदी अरब और ईरान में वर्चस्व की लड़ाई, पश्चिम एशिया में गहराया संकट

नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क] । लेबनान और सऊदी अरब के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। लेबनान के प्रधानमंत्री साद अल-हरीरी सऊदी अरब की राजधानी से पिछले हफ्ते इस्तीफा देने के बाद स्वदेश नहीं लौटे हैं। लेबनान ने सऊदी अरब पर हरीरी के अपहरण का आरोप लगाया है। जबकि सऊदी अरब का कहना है कि हरीरी ने अपने सहयोगी लेबनानी संगठन हिजबुल्ला से जान को खतरे के चलते इस्तीफा दिया। इस बीच अमेरिका और फ्रांस ने लेबनान की संप्रभुता और स्थिरता के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया है। लेकिन इन सबके बीच ईरान की भूमिका क्या है। क्या सऊदी को इस बात को लेकर आपत्ति है कि ईरान, लेबनान में हिज्बुल्ला संगठन को बढ़ावा दे रहा है या ये सिर्फ शिया और सुन्नी कौम के बीच की लड़ाई है, जिसमें ईरान और सऊदी अरब एक-दूसरे के आमने,सामने हैं। लेबनान और हिज्बुल्ला तो सिर्फ मोहरा हैं। हम शिया और सुन्नी समुदायों के बीच के बुनियादी अंतर को बताने से पहले ये बताएंगे कि पीएम साद अल हरीरी के मुद्दे पर लेबनान के राष्ट्रपति का क्या कहना है। 

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लेबनान के राष्ट्रपति मिशेल औउन ने अपने राजदूतों से कहा कि प्रधानमंत्री साद अल- हरीरी का अपहरण किया गया है। उन्हें राजनयिक छूट मिलनी चाहिए। औउन ने सऊदी अरब से पूछा है कि अपने इस्तीफे की घोषणा के बाद से हरीरी अब तक क्यों नहीं लौटे। इस तरह के संकेत भी मिले हैं कि मिशेल ने हरीरी का इस्तीफा अभी तक स्वीकार नहीं किया है। हरीरी की पार्टी फ्यूचर मूवमेंट ने भी कहा है कि वह पूरी तरह उनके साथ है। परिवार के लोगों और सहयोगी के संपर्क करने पर हरीरी ने कहा कि वह ठीक हैं। स्वदेश लौटने के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है, लेकिन वो बहुत जल्द लेबनान जाएंगे। इन सबके बीच सऊदी अरब ने अपने नागरिकों को लेबनान छोड़ने के लिए कहा है। 

लेबनान से क्या है परेशानी
चार नवंबर को रियाद एयरपोर्ट को निशाना बनाकर यमन से मिसाइल दागी गई। सऊदी अरब का आरोप है कि यह मिसाइल ईरान और लेबनान ने तैयार की थी। सऊदी अरब यमन में हाउती विद्रोहियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है। हाउती विद्रोहियों को लेबनानी संगठन हिजबुल्ला का समर्थन है। हिजबुल्ला हथियार संपन्न लड़ाकू संगठन है। हरीरी के इस्तीफे पर लेबनान ने आरोप लगाया कि सऊदी अरब ने दबाव डाला था। लेकिन सऊदी अरब ने कहा कि लेबनान के पीएम ने इसलिए इस्तीफा दिया है, क्योंकि उसके सहयोगी हिजबुल्लाह से उन्हें जान का खतरा है। सऊदी अधिकारियों के मुताबिक यमन में हाउती नाम से पहचाने जाने वाले सऊदी विरोधियों को हिज्बुल्ला आतंकियों के समर्थन के जवाब में उसने लेबनान के खिलाफ कड़े कदम उठाए हैं। हिज्बुल्ला लेबनान का संगठन है।

इस बीच, सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री ने शनिवार को कहा कि रियाद ने बहरीन को तेल की आपूर्ति बंद कर दी है। उन्होंने बताया कि बीते दिनों तेल पाइपलाइन में हुए धमाके के बाद सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाए गए हैं। ईरान को इस धमाके के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था, जबकि ईरान ने बहरीन में अस्थिरता पैदा करने के आरोपों को खारिज कर दिया है।

जानकार की राय

मध्य पूर्व मामलों के जानकार वइल अव्वाद ने दैनिक जागरण से खास बातचीत में कहा कि सऊदी अरब की विस्तारवादी नीति शुरू से ही रही है। ईरान-इराक युद्ध हो या गल्फ वॉर हो, सऊदी अरब की भूमिका समस्याओं को सुलझाने से ज्यादा उलझाने की रही है। ताजा मामले को आप सिर्फ शिया या सुन्नी के तौर पर नहीं देख सकते हैं। सऊदी अरब को लगता है कि ईरान की तरक्की से ताकत का झुकाव उसकी तरफ हो जाएगा और मध्यपूर्व में उसकी बादशाहत के लिए खतरा पैदा होगा।

वर्चस्व की लड़ाई है बड़ी वजह
सऊदी अरब और उसके पड़ोसी देशों के बीच लगातार बढ़ते तनाव की वजह वर्चस्व की लड़ाई है। दरअसल, पिछले कुछ समय में सऊदी ने क्षेत्रिय आधिपत्य स्थापित करने के लिए पड़ोसी देशों के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ दिया है। ईरान और सऊदी अरब के बीच शिया-सुन्नी मुद्दा तनाव की सबसे अहम वजह है। ये दोनों देश इस्लामिक दुनिया पर अपने नेतृत्व का दावा करते हैं। ईरान शिया बहुल देश है तो सऊदी में सुन्नी मुस्लिमों की संख्या ज्यादा है।

अमेरिका और ईरान के बीच हुए परमाणु समझौते से सऊदी डरा हुआ है। सऊदी को लग रहा है कि इससे ईरान अपनी अर्थव्यवस्था को दोबारा खड़ा करने के लिए आजाद हो जाएगा। इसके साथ ही इराक और अब सीरिया में भी ईरान का प्रभाव बढ़ने से सऊदी की चिंता बढ़ती जा रही है। इन सबके अलावा सऊदी के युवराज मोहम्मद बिन सलमान ने ईरान के लिए कड़ा रुख अपनाया हुआ है।

ताकतवर हिज्बुल्ला शिया आंदोलन को ईरान का समर्थन प्राप्त है जो लेबनान और इस इलाके में तनाव बढ़ाने के लिए सऊदी अरब को जिम्मेदार ठहराता रहा है। अगर ध्यान से देखें तो लेबनान का सियासी संकट हो या फिर सीरिया और इराक में जारी संघर्ष इनमें शिया-सुन्नी विवाद की गूंज सुनाई देती है। सुन्नी प्रभुत्व वाला सऊदी अरब इस्लाम का जन्मस्थल है और इस्लामिक दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण जगहों में शामिल है। सऊदी दुनिया के सबसे बड़े तेल निर्यातकों और धनी देशों में से एक है। सऊदी अरब को डर है कि ईरान मध्य-पूर्व पर हावी होना चाहता है और इसीलिए वह शिया नेतृत्व में बढ़ती भागीदारी और प्रभाव वाले क्षेत्र की शक्ति का विरोध करता है।

मुसलमान मुख्य रूप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी
पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के तुरंत बाद ही इस बात पर विवाद से विभाजन पैदा हो गया कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन करेगा। मुस्लिम आबादी में बहुसंख्यक सुन्नी हैं और अनुमानित आंकड़ों के अनुसार इनकी संख्या 85 से 90 प्रतिशत के बीच है। दोनों समुदाय के लोग सदियों से एक साथ रहते आए हैं, उनके अधिकांश धार्मिक आस्थाएं और रीति रिवाज एक जैसे हैं। इराक के शहरी इलाकों में हाल तक सुन्नी और शियाओं के बीच शादी बहुत आम बात हुआ करती थीं। लेकिन सिद्धांत, परम्परा, कानून, धर्मशास्त्र और धार्मिक संगठन का उनके नेताओं में भी प्रतिद्वंद्विता देखने को मिलती है। लेबनान से सीरिया और इराक से पाकिस्तान तक दोनों गुटों में संघर्ष ने साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ाया है और दोनों समुदायों को अलग-अलग कर दिया है।

कौन हैं सुन्नी ?
सुन्नी खुद को इस्लाम की सबसे धर्मनिष्ठ और पारंपरिक शाखा से मानते हैं। सुन्नी शब्द 'अहल अल-सुन्ना' से बना है जिसका मतलब है परम्परा को मानने वाले लोग। इस मामले में परम्परा का संदर्भ ऐसे रिवाजों से है जो पैगंबर मोहम्मद और उनके करीबियों के व्यवहार या दृष्टांत पर आधारित हों। सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका जिक्र कुरान में किया गया है, लेकिन अंतिम पैगंबर मोहम्मद ही थे। इनके बाद हुए सभी मुस्लिम नेताओं को सांसारिक शख्सियत के रूप में देखा जाता है। शियाओं की अपेक्षा, सुन्नी धार्मिक शिक्षक और नेता ऐतिहासिक रूप से सरकारी नियंत्रण में रहे हैं।

कौन हैं शिया ? 
इस्लामी इतिहास में शिया एक राजनीतिक समूह के रूप में थे- 'शियत अली' यानी अली की पार्टी। शियाओं का दावा है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने का अधिकार अली और उनके वंशजों का ही है। अली पैगंबर मोहम्मद के दामाद थे। मुसलमानों का नेता या खलीफा कौन होगा, इसे लेकर हुए एक संघर्ष में अली मारे गए थे। उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी खलीफा होने के लिए संघर्ष किया था। हुसैन की मौत युद्ध क्षेत्र में हुई, जबकि बताया जाता है कि हसन को जहर दिया गया था।

इन घटनाओं के कारण शियाओं में शहादत और मातम मनाने को इतना महत्व दिया जाता है। एक अनुमान के अनुसार शियाओं की संख्या मुस्लिम आबादी की 10 प्रतिशत यानी 12 करोड़ से 17 करोड़ के बीच है। ईरान, इराक, बहरीन, अजरबैजान और कुछ आंकड़ों के अनुसार यमन में शियाओं का बहुमत है। इसके अलावा, अफगानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, कतर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और यूनाइडेट अरब ऑफ अमीरात में भी इनकी अच्छी खासी संख्या है।

हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार?
उन देशों में जहां सुन्नियों की सरकारें है, और शिया समुदाय गरीब हैं वो अक्सर खुद को भेदभाव और दमन का शिकार बताते हैं। सुन्नी सिद्धांतों ने भी शियाओं के खिलाफ घृणा को बढ़ावा दिया गया है। 1979 की ईरानी क्रांति से उग्र शिया इस्लामी एजेंडे की शुरुआत हुई थी। इसे सुन्नी सरकारों के लिए खासतौर से खासकर खाड़ी के देशों के लिए चुनौती माना गया।

ईरान ने अपनी सीमाओं के बाहर शिया लड़ाकों और पार्टियों को समर्थन दिया, जिसे खाड़ी के देशों ने चुनौती के रूप में लिया। खाड़ी देशों ने भी सुन्नी संगठनों को इसी तरह मजबूत किया, जिससे सुन्नी सरकारों और विदेशों में सुन्नी आंदोलन से उनसे संपर्क और मजबूत हुए। लेबनान में गृहयुद्ध के दौरान शियाओं ने हिज्बुल्ला की सैन्य कार्रवाइयों के कारण राजनीतिक रूप में मजबूती हासिल कर ली। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान जैसे कट्टरपंथी सुन्नी संगठन अक्सर शियाओं के धार्मिक स्थानों को निशाना बनाते रहे हैं।

सऊदी अरब-ईरान के बीच तनाव से भारत को नुकसान
अगर सऊदी अरब व ईरान के बीच में युद्ध होता है तो भारत को खाड़ी देशों में काम करने वाले करीब 80 लाख भारतीयों पर इसका असर होगा। भारत की कोशिश है कि दोनों देश बातचीत के जरिए इसका समाधान निकालें। इसके अलावा दोनों देशों के बीच युद्ध होने का असर कच्चे तेल की कीमतों पर भी पड़ सकता है। युद्ध होने से कच्चे तेल की कीमतों में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाएगी, जिसका खामियाजा भारत को भी उठाना पडेगा। भारत सऊदी अरब व ईरान दोनों देशों से बड़ी मात्रा में तेल का आयात करता है। ये दोनों देश सबसे बड़े तेल उत्पादक देश माने जाते हैं।

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