शिकारियों के हाथ उड़ान खोती पाखियों के नाम ये पैगाम
नारी इतनी सशक्त है कि उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं। अगर समाज उसे कमजोर समझता है, तो इसे गलतफहमी नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। अगर लोग अपने जेहन में ये ख्याल रखते हैं कि वो शारीरिक रूप से अक्षम है तो वो गलती नहीं तो क्या। नारी ने हर कदम पर साबित किया है कि वो हर वक्त हर नाजुक हालात से लड़ने को तैयार है।
नई दिल्ली। नारी इतनी सशक्त है कि उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं। अगर समाज उसे कमजोर समझता है, तो इसे गलतफहमी नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। अगर लोग अपने जेहन में ये ख्याल रखते हैं कि वो शारीरिक रूप से अक्षम है तो वो गलती नहीं तो क्या। नारी ने हर कदम पर साबित किया है कि वो हर वक्त हर नाजुक हालात से लड़ने को तैयार है। नारी मानसिक तौर से इतनी ताकतवर है कि हर दर्द को अपनी हंसी में छिपाकर आगे बढ़ती रहती है। इन्हीं ख्यालों से पिरोई दर्द में भी उस ताकत को बताती ये कविता:
दर्द से जूझती नारी की जुबानी..
पट्टी बांध रही कलाई पर, बहते खून को रोकना जो है, खुद ही, अकेले कोई नहीं करेगा मदद,
उस रात भी तो अकेली थी, जख्मों के साथ चिथरों से अपनी लाज ढंकती, घिसटती, सरकती, सिमटती
पर उन घावों का क्या जो उस रात के बाद उभर आये हैं दिल में, दिमाग में, आज भी टीस उठती है, उनमें आत्मा कराहती है और निकल जाती है चीख,
पर होठों से नहीं आंखों से, होठ तो तब से बेजान हैं जब पत्थर जैसे हाथों ने पूरी ताकत से मुंह बंद कर दिया था,
अब तो बस आंखें बोलती हैं पर पढ़ता कौन है? भरना चाहती थी घावों को दिल के,दिमाग के, दे सकते हो कोई पट्टी, कोई दवा?
नहीं..तुम तो बस कुरेदना जानते हो और नमक लगाना स्वादानुसार. आज भी टीस उठी थी असहनीय कि दूसरे हाथ ने चाकू उठा लिया ताकि नए जख्म से पछाड़ सके पुराने दर्द को हमेशा के लिए,
पर सुना है कुछ लोग मरहम बना रहे अभी उसका प्रयोग बाकि है,अब तो जीना होगा जख्मों पर नमक और मरहम का खेल जो होना है।
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