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कैसा सशक्तीकरण: मां! किससे कहूं ये दर्द

उसका मां के आंचल में सिमट कर सोने को जी करता है..आंगन में बहन के साथ गुड़ियों से खेलने का मन करता है..लेकिन उससे बचपन और उससे जुड़ा हर अहसास छीन लिया गया है। यह विडंबना रुला ही देती है कि जिस गौरी (परिवर्तित नाम) को जन्म के बाद मां का साया नसीब नहीं हुआ वह 13 वर्ष की उम्र में मां बनने जा रही है। 21वीं सदी में गौरी की दास्तां एक ऐसी हकीकत है जो नारी सशक्तिकरण के दावे और सामाजिक कुंठाओं की पोल खोलती है। ये स'ची कहानी महिला स

By Edited By: Published: Fri, 08 Mar 2013 12:39 PM (IST)Updated: Fri, 08 Mar 2013 12:55 PM (IST)
कैसा सशक्तीकरण: मां! किससे कहूं ये दर्द

शिमला, (रचना गुप्ता)। उसका मां के आंचल में सिमट कर सोने को जी करता है..आंगन में बहन के साथ गुड़ियों से खेलने का मन करता है..लेकिन उससे बचपन और उससे जुड़ा हर अहसास छीन लिया गया है। यह विडंबना रुला ही देती है कि जिस गौरी (परिवर्तित नाम) को जन्म के बाद मां का साया नसीब नहीं हुआ वह 13 वर्ष की उम्र में मां बनने जा रही है। 21वीं सदी में गौरी की दास्तां एक ऐसी हकीकत है जो नारी सशक्तिकरण के दावे और सामाजिक कुंठाओं की पोल खोलती है। ये सच्ची कहानी महिला सशक्तिकरण पर कई सवाल खड़े करती है।

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मां से वंचित गौरी ने हर महिला में मां का अक्स ढूंढ़ा। हिमाचल प्रदेश के मनाली के समीप बसगोला गांव में रह रही गौरी को पता भी नहीं चला कि वह बचपन से किशोरावस्था की ओर बढ़ रही है। सरण गांव में जब वह पैदा हुई तो उसके सर से मां व पिता दोनों का साया उठ गया। बहन तीन साल बड़ी है। दोनों अपने नाना के घर बसगोला में रह रहती थी। मां के चचेरे भाई (मामा) फतेह चंद ने इनके अनाथ होने का फायदा उठाया और गौरी को अपनेपन का अहसास करवाने लगा। तब गौरी अभी 12 बरस की ही हुई थी। गौरी अपनी बहन से कहती- 'दीदी मैं तो टीचर बनूंगी, अपने आप पैसे कमाऊंगी, मेहनत करूंगी'। सीता मुस्करा कर हौसला बढ़ाती।

दिसंबर, 2012 का पहला सप्ताह था। गौरी को पेट में भयंकर दर्द हुआ। तीन दिन तक दर्द कम न हुआ तो बहन उसे लेकर पतलीकूहल के एक निजी क्लीनिक में पहुंची। इस बात से अंजान कि छोटी सी बच्ची को छह माह का गर्भ है। नाना को बताया तो मामा ने डराया-धमकाया। दहशत के साये में दोनों बहनों ने कुछ दिन बिताए। कहीं कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। उसकी बहन कहती है, 'हमने सोचा कि अब क्या करें गौरी को तो अभी माहवारी का भी ज्ञान नहीं। फिर एक बोर्ड पर मैंने चाइल्ड हेल्पलाइन का नंबर देखा तो तुरंत फोन किया।' मामला स्थानीय पुलिस में दर्जन तो हो गया लेकिन दोनों बहनों के सर से नाना की छत भी टूट गई।

शिमला के मशोबरा स्थित बालिका आश्रम में दोनों को लाया गया। गौरी की पीड़ा दोहरी हो गई। 13 बरस की उम्र में उसके लिए यह समझ पाना कठिन हो रहा था कि आखिर यह सब हो क्या रहा है? इन दिनों वह शिमला के दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल में भर्ती है। फरवरी से उसे समाज कल्याण विभाग ने प्रसव के लिए भेजा है।

कौन महसूस करे बिस्तर पर सोई बच्ची का दर्द

अस्पताल के एक साधारण वार्ड में भर्ती गौरी की दास्तां हर उस शख्स के कानों में पड़ रही है जो वहां जा रहा है। करीब 20 दिनों से अस्पताल में भर्ती गौरी जिस बिस्तर पर लेटी है वहां एक छोटा सा बच्चा गुमसुम सोया लगता है। एक कंबल से कभी अपने मुंह को छिपाती है तो कभी मुंह फेरती है। ना वह किसी से बात करती है ना ही कुछ प्रतिक्रिया देती है। इस नन्हीं जान का दर्द उसकी आंखों से खुद ब खुद बयां हो रहा है।

स्वस्थ है बच्चा मगर जाएंगे कहां

चंद दिनों में डाक्टर गौरी का आप्रेशन करेंगे। बच्चा स्वस्थ बताया जा रहा है लेकिन एक बड़ा सवाल मुंह बाएं खड़ा है कि गौरी के प्रसव के बाद यह सब जाएंगे कहां? गौरी खुद बच्ची है, ऐसे बच्चे को शिशु गृह भेजा जाता है व गौरी को मशोबरा आश्रम। मां के जिस लाड़ का उसने कभी अहसास नहीं किया वह उसे अपनी औलाद को वह कैसे दे पाएगी? हालांकि समाज कल्याण विभाग का दावा है कि एक कर्मचारी की ड्यूटी बच्चियों के साथ लगाई गई है, लेकिन अस्पताल सूत्र बताते हैं कि वह कभी कभार ही आता है। विभाग का रूटीन रवैया गौरी व उसकी बहन को कितनी राहत दे पाता है यह प्रसव के बाद तय होगा।

ध्यान रखा जा रहा है

'हम बच्ची की देखभाल कर रहे हैं। प्रसव के बाद दोनों को साथ भी रखा जा सकता है। बच्चे को गोद लेने की प्रक्रिया भी पूरी हो सकती है।'

-मधुबाला शर्मा, निदेशक महिला एवं बाल विकास विभाग

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