शोध संस्थान बनने का सपना अब भी अधूरा
संवाद सहयोगी, रुद्रप्रयाग : हिन्दी के चितेरे कवि चन्द्रकुंवर बत्र्वाल को आज हिन्दी साहित्य में वह पहचान नहीं मिल पाई, जो अन्य कवियों को मिली है। हिन्दी साहित्य में एक अनोखी छाप छोड़ने वाले हिमवंत कवि के कर्मस्थली पवालिया में प्रस्तावित शोध संस्थान का निर्माण भी अभी तक ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है।
हिमालय को अपनी कविताओं को आधार व कालिदास को पथ प्रदर्शक मानने वाले कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल ने 21 अगस्त 1919 में तत्कालीन चमोली जिले के मालकोटी में भोपाल सिंह के घर जन्म लिया। इनकी प्राथमिक शिक्षा उडमाडा गांव में हुई। इसके बाद की शिक्षा कक्षा आठ तक नागनाथ पोखरी व हाईस्कूल पौड़ी के मेसमोर स्कूल से की। आगे की पढ़ाई के लिए वह देहरादून, प्रयाग विश्वविद्यालय व लखनऊ गए। लखनऊ विवि में उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास में प्रवेश लिया। हिन्दी साहित्य के प्रति उनमें जुनून इस कदर था कि अल्पआयु से ही क्षय रोग होने के बाद भी वो कविताएं लिखते रहे। यहीं कारण है कि उनकी कर्मभूमि में शोध संस्थान बनने से साहित्यकारों को भी इसका फायदा मिलता व उनके जीवन से कई अनछुए लम्हों से भी रुबरू होने का मौका मिलता। कवि की कर्मस्थली पवालिया में शोध संस्थान निर्माण को लेकर प्रशासन ने शासन को पूर्व में प्रस्ताव भेजा हो, लेकिन मामला विगत लंबे समय से लटका पड़ा है। इसके लिए ना ही शासन की ओर से कोई कार्रवाई हो सकी और न ही प्रशासन की ओर से। इससे जिले के साहित्यकारों ने खासी नाराजगी जताई है। कवि बत्र्वाल 14 सितंबर 1947 को मात्र 28 वर्ष की उम्र में ही दुनिया से विदा हो गए। उन्होंने इस आयु में हिन्दी जगत में ऐसी छाप छोड़ी जो किसी भी कवि की रचनाओं में नहीं मिलता। यह अन्य साहित्यकारों के लिए एक प्रेरणास्रोत साबित होगा। उनकी पुण्यतिथि के दिन को हिन्दी दिवस के रूप में भी मनाया जाने लगा।
कवि चन्द्रकुंवर बत्र्वाल की रचनाएं-
हेमंत में पैयां, मैलू, आरू के फूल बसंत, पयस्विनी, मेघ नंदनी, जीतू, कंकड़ पत्थर, गीत माध्वी, नागिनी प्राणायिनी, विराट ज्योति आदि
चन्द्रकुंवर की कर्मस्थली पवालियां में शोध संस्थान बनाए जाने को लेकर शासन-प्रशासन स्तर पर आज तक कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है। यदि यह संस्थान बन जाता है तो इस महान कवि से देश दुनिया के साहित्यकारों को भी रूबरू होने का मौका मिलता।
जगदंबा चमोली
साहित्यकार, रुद्रप्रयाग