मूल्य व मुद्दों पर आधारित राजनीति अब कहां
राजनीति का अब मूल्य व मुद्दों पर आधारित तथा राजनैतिक दलों में विचारधारा के साथ खड़ा होना गुजरे जमाने
राजनीति का अब मूल्य व मुद्दों पर आधारित तथा राजनैतिक दलों में विचारधारा के साथ खड़ा होना गुजरे जमाने की बात हो गई है। यह भी अकाट्य सत्य है कि देशकाल परिस्थिति के साथ-साथ राजनीतिक मुद्दों एवं मूल्यों में परिवर्तन होते रहे हैं, लेकिन दलों की वैचारिक आत्मा कमोवेश यथावत रहती थी। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखकर साफ है कि सियासत अब मूल्यविहीन होने के साथ वैचारिक आधार से भटक गई है। राजनीतिक दलों का लक्ष्य मात्र सत्ता हासिल करना, सत्ता प्राप्ति के लिए बेमेल गठजोड़ और नए-नए समीकरण तैयार कर जनभावना को जाति, धर्म, वर्ग, क्षेत्र, भाषा के आधार पर उभारना और जनमत को येनकेन प्रकणेन अपने पक्ष में करने का निरंतर प्रयास करना मात्र रह गया है। यह आज की राजनीतिक नीयत बन चुकी है।
इससे बड़ी बात तो यह हो गई कि सत्ता, शासन को चलाने की क्षमता भले हो या न हो, लेकिन सत्ता पाने पर काबिज होने की उत्कट लालसा उन्हें किसी प्रकार के हथकंडे अपनाने से नहीं रोकती। राजनीतिक गठजोड़ व दबाव की राजनीति के बूते सत्ता और संस्थागत शीर्षस्थ पदों को प्राप्त करना चलन सा बन गया है, फलस्वरूप न तो विचारधारा, निष्ठवान व योग्य एवं सक्षम व्यक्ति जिसकी समाज व शासन में वास्तव में जरूरत है। वह न शासन सत्ता पर काबिज हो पा रहा है, और न ही उसे समझने या सुनने की जरूरत ही महसूस की जा रही है। आवश्यकता इस बात की थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सतत सामाजिक आर्थिक विकास, पर्यावरण सुरक्षा, सुशासन एवं भ्रष्टाचार मुक्त समाज, गुणवत्तायुक्त शिक्षण एवं शोध, मानव की मूलभूत आवश्यकता जैसे बिजली, पानी, चिकित्सा, स्वच्छता, पोषण, युवा एवं महिला विकास से जुड़े सवाल, सड़क, यातायात, कृषि, अवस्थापना सुविधाएं, प्राकृतिक एवंमानव संसाधन विकास, आधुनिक सूचना तंत्र के प्रचार प्रसार, किसान ग्रामीणों की खुशहाली एवं स्वावलंबन, गरीब एवं मजदूर वर्ग के उत्थान एवं विकास आदि जैसे मुद्दे हमारी राजनीति के केंद्र में होने चाहिए थे। आज यदि कोई इनमें से किसी मुद्दे पर सत्यनिष्ठा, ईमानदारी व जवाबदेही के साथ बात करता भी है तो उसमें भी हमें खोट दिखाई देता है।
जनता के आंदोलन की बदौलत उत्तराखंड राज्य भी अस्तित्व में आया। एक आम उत्तराखंडी की अपेक्षा थी कि पृथक पर्वतीय राज्य बनने से उसकी मूलभूत आवश्यकताएं तो पूरी होंगी, उसका स्वप्न था कि जल, जंगल, जमीन, पर्यटन, ईमानदार, कर्मठ युवा जो उत्तराखंड की ताकत थी, उसके बूते स्वावलंबन प्राप्त कर सकेगा। उसका आवासीय क्षेत्र आधुनिक सुख सुविधाओं मसलन बिजली, पानी व सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों को प्राप्त कर सकेगा। दशकों से पर्वतीय पलायन पर विराम लगेगा और निर्जन होते गांव, घर बंजर होते खेत खलिहान, जंगलविहीन न हो, सूखते जल स्रोत, जड़ी बूटी विहीन होते हिमालयी क्षेत्र, बेरोजगारी से त्रस्त युवा, नर नारी, प्राकृतिक आपदा से विस्थापित लोग आदि सतक विकास की परिकल्पना साकार हो सकेगी, लेकिन पिछले 16 सालों के अनुभव से ऐसा प्रतीत नहीं होता।
नि:संदेह राजनीतिक दलों के नारे, घोषणाएं, और उन्हें पूरा करने के आश्वासन जारी है,ं लेकिन प्रतीत होता है कि विकास और विकास प्रक्रिया की जो प्रवृत्ति हाल के वर्षो में पैदा हुई है, उसमें हम एक आम उत्तराखंड के उस स्वप्न को साकारा होते नहीं देख रहे हैं, जिसकी कल्पना की गई थी। मसलन उद्योग हैं तो स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार नहीं, शिक्षण संस्थाएं हैं लेकिन वहां ना तो शिक्षक हैं और न अवस्थापना सुविधाएं। चिकित्सालय हैं मगर चिकित्सक, दवा एवं उपकरणों की आवश्यकतानुसार प्रतिपूर्ति भी नहीं हैं।
निर्जन होते गांव, लालची खनन एवं भू माफिया को दावत दे रहे हैं। वनों व जड़ी बूटियों का दोहन चरम पर है। धार्मिक पर्यटन, पर्यटन उद्योग एवं ऊर्जा प्रदेश की संकल्पना के विकास की दशा एवं दिशा, सत्त विकास की संकल्पना के अनुरुरुत प्रतीत नही होती।
देवभूमि में बढ़ रही आपराधिक घटनाएं भारत के इस सीमांत, पर्वतीय राज्य के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष एं बड़ा प्रश्नचिह्न है। राष्ट्रीय हितों की कीमत पर मूल्य एवं विचारहीन होती राजनीति के रास्ते सत्ता पाने की चाहत एक भयावह मानसिकता की परिचायक है। जिस पर समय रहते आत्मचिंतन की आवश्यकता है। यह कार्य एक जागरूक देशभक्त मतदाता ही कर सकता है। आज हमारी प्राथमिकता राष्ट्रीय सुरक्षा, सत्त विकास है, जिसे केंद्र परखते हुए राज्यस्तरीय इकाइयों को नीति नियोजन एवं उसके समुचित क्रियान्वयन पर कार्य करने की आवश्यकता है।
प्रो. भगवान सिंह बिष्ट, समाजशास्त्री।
कला संकायाध्यक्ष कुमाऊं विवि नैनीताल।