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यदि ऐसे प्रयास किए गए तो बच सकते हैं उत्तराखंड के जंगल

उत्तराखंड में हर साल हजारों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। जानकारों के मुताबिक यदि कुछ प्रयास किए जाएं तो इन जंगलों को नुकसान से बचाया जा सकता है।

By BhanuEdited By: Published: Mon, 17 Apr 2017 12:21 PM (IST)Updated: Tue, 18 Apr 2017 06:00 AM (IST)
यदि ऐसे प्रयास किए गए तो बच सकते हैं उत्तराखंड के जंगल
यदि ऐसे प्रयास किए गए तो बच सकते हैं उत्तराखंड के जंगल

देहरादून, [जेएनएन]: उत्तराखंड में हर साल ही बड़े पैमाने पर वन संपदा आग की भेंट चढ़ जाती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यहां के हरे-भरे जंगल यूं ही सुलगते रहेंगे। क्यों वन महकमा हर बार ही इंद्रदेव की ओर ही मुंह ताकता रहता है कि कब बारिश हो और आग बुझ सके। साफ है कि इसके लिए ऐसा मैकेनिज्म अपनाना होगा, जिससे आग पर काबू पाया जा सके। 

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जानकारों की मानें तो मौसम के तेवरों पर तो किसी का वश नहीं है, लेकिन आग पर नियंत्रण को ठोस प्रयास तो किए जा ही सकते हैं। वनों में आग की बड़ी वजह है नमी का अभाव। पिछले वर्ष सूबे में बड़े पैमाने पर वनों में भड़की आग का अध्ययन करने आई संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया। 

कहने का आशय ये कि गंभीरतापूर्वक किए गए थोड़े से प्रयासों से जंगलों को आग से बचाया जा सकता है। इसके लिए पतझड़ में जमा होने वाली पत्तियों के ढेर का नियंत्रित फुकान करने के साथ ही जंगल में नमी बरकरार रखने को बारिश की बूंदों को वहां सहेजना होगा। साथ ही जनसमुदाय को साथ लेकर दूसरे कदम उठाए जाएं तो आग पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।

ऐसे बुझेगी जंगल की आग

खाल-चाल

गर्मी बढ़ने पर जलस्रोत सूखने के साथ ही जंगलों की सतह भी खासी गर्म हो जाती है। ऐसे में जरूरी है कि जंगलों में बारिश की बूंदों को सहेजा जाए। इसके लिए वर्षा जल संरक्षण का पारंपरिक तौर तरीका खाल-चाल (छोटी-बड़ी जल तलैंयां बनाना) सबसे कारगर है। सूबे में उफरैंखाल समेत कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जहां बड़ी संख्या में तैयार जलतलैंया की वजह से जंगल में आग नहीं लगती।

ढूंढना होगा पिरुल का उपयोग

आग के फैलाव की वजह चीड़ की पत्तियां यानी पिरुल भी हैं। राज्य में करीब 15 फीसद हिस्से में चीड़ के जंगल हैं और हर साल इनसे लगभग 24 लाख टन पत्तियां गिरती हैं। गर्मी में सूखी यह पत्तियां आग भड़काने में घी का काम करती हैं। 

लिहाजा, पिरुल का बेहतर उपयोग ढूंढना होगा। हालांकि, पूर्व में इससे टिकली व बिजली बनाने के प्रयोग हुए, मगर ये विभिन्न कारणों से अंजाम तक नहीं पहुंच पाए। अब इस दिशा में गंभीरता से चिंतन की दरकार है।

सामाजिक वानिकी

आंकड़े बताते हैं कि हर साल औसतन 2200 हेक्टेयर जंगल आग से तबाह होता है। इसमें वे हिस्से भी शामिल हैं, जहां अच्छी घास के लिए आग लगाई जाती है। या फिर मानवीय लापरवाही आग का कारण बन जाती है। ऐसे में वन सीमा से सटे जंगल के क्षेत्रों के साथ ही खाली पड़ी भूमि का सामाजिक वानिकी के तहत प्रबंधन किया जाना चाहिए। 

यानी जंगल की इस भूमि पर स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार पेड़ों को पनपाने का जिम्मा लोगों को सौंपा जाए तो वे अपने हिसाब से इसकी सुरक्षा करेंगे।

वन पंचायत एवं जनसहभागिता

उत्तराखंड देश का ऐसा अकेला राज्य है, जहां वन पंचायतें कायम हैं। वन पंचायतों को आवंटित जंगलों की देखरेख वे स्वयं करती हैं। 12 हजार से अधिक वन पंचायतें राज्य में हैं और इनसे जुड़े लोगों की संख्या है करीब सवा लाख। ऐसे में वन पंचायतों के अधीन वनों से इतर भी इस फौज का उपयोग जंगलों को आग से बचाने में किया जाना चाहिए। यही नहीं, स्थानीय ग्रामीणों को भी हक-हकूक आदि में कुछ रियायतें देकर उन्हें वनों की सुरक्षा से जोड़ना होगा।

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