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भूख बना रही तेंदुए को आदमखोर: शिकारी लखपत रावत

शिकारी लखपत रावत का कहना है कि वास्तविक जंगल साफ हो गए हैं और इसी के साथ गुलदार (तेंदुए) जैसे जानवरों को जंगल में मिलने वाला आहार सिमटा है। भूख ही गुलदारों को आदमखोर बना रही है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sun, 04 Dec 2016 01:57 PM (IST)Updated: Mon, 05 Dec 2016 05:05 AM (IST)
भूख बना रही तेंदुए को आदमखोर: शिकारी लखपत रावत

देहरादून, [जेएनएन]: उत्तराखंड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किलोमीटर, जिसमें 37999 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं जंगल। बदली परिस्थितियों में यही जंगल आफत बनकर भी उभरे हैं। खासकर, गुलदार (तेंदुए) और बाघों के आतंक से सूबा थर्रा रहा है। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि राज्य गठन से लेकर अब तक करीब 400 लोग वन्यजीवों का निशाना बन चुके हैं, जबकि एक हजार से अधिक घायल।

इनमें भी लगभग 80 फीसद हमले गुलदारों के हैं। पहाड़ में तो गुलदारों के खौफ के चलते दिनचर्या बुरी तरह प्रभावित हुई है। न खेत खलिहान महफूज और न घर-आंगन। कब कहां मौत रूपी गुलदार सामने आ धमके, कहा नहीं जा सकता। पहाड़ के लगभग सभी गांवों का आलम ऐसा ही है। बल्कि, अब तो मानव और वन्यजीवों के बीच छिड़ी यह जंग चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है। इस संघर्ष में वन्यजीव और मानव दोनों को जान देकर कीमत चुकानी पड़ रही है। लगातार गहराते इस द्वंद्व को लेकर जागरण संवाददाता केदार दत्त ने राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय 49 आदमखोर गुलदार-बाघों को मार गिराकर लोगों को राहत पहुंचाने वाले प्रसिद्ध शिकारी लखपत रावत से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इसके मुख्य अंश।

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प्रश्न: एक शिक्षक से शिकारी बनने की वजह। यह जोखिम उठाने का मन में ख्याल कैसे आया।
-मेरे पिता शिक्षक और तीनों चाचा फौज में थे। लेकिन, मेरे परदादा लछम सिंह शिकार के शौकीन थे। उनके बारे में इतिहास खंगाला तो बात सामने आई कि 1912 से 1925 तक वे अंग्रेजों के साथ भी शिकार करते थे। इसे देखते हुए मैंने भी शूटिंग सीखी। 1984 में मैंने एसएसबी में सरान ट्रेनिंग की और बेस्ट फायरर चुना गया। जब मैंने परिवार में एसएसबी में जाने की बात कही तो इसकी इजाजत नहीं मिली। चूंकि मैं बीटीसी भी कर चुका था, सो शिक्षा के क्षेत्र में जाने की सलाह दी गई।

1984 में ही मुझे प्राथमिक विद्यालय भविष्य बदरी जोशीमठ में नियुक्ति मिली। इस बीच वर्ष 2000 में आदि बदरी क्षेत्र में गुलदार का आतंक छा गया। 2001 तक गुलदार ने 10 बच्चे मार डाले थे। इससे मन बहुत विचलित हुआ। यही बात कौंधती रही कि जब बच्चे ही नहीं रहेंगे तो स्कूल में पढ़ाएंगे किसे। सो, उनकी आत्मा की शांति के लिए इलाके को आदमखोर के आतंक से मुक्त कराने का फैसला लिया। प्रशासन से इजाजत मांगी, लेकिन नहीं मिली। बाद में तत्कालीन मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के हस्तक्षेप के बाद चमोली के डीएम ने 31 अगस्त 2001 को लाइसेंस दिया। तब तक गुलदार दो बच्चों समेत तीन और लोगों को मार चुका था। आठ माह की कसरत के बाद 15 मार्च 2002 में आदमखोर को मारने में सफलता मिली।

प्रश्न: ऐसा कोई वाकया, जब किसी मिशन के दरम्यान लगा कि अब बचना मुश्किल है।
-बात सितंबर 2001 की है। तब मैं नया-नया था और पहली बार आदिबदरी क्षेत्र में सक्रिय आदमखोर को मारने निकला था। नवंबर अथवा दिसंबर की बात होगी, जंगल में सभी शिकारी तैनात थे। मैं दूसरे छोर पर था, तभी गुलदार दिखाई पड़ने पर दूसरे शिकारी ने गोली चलाई, जो मेरे सिर के बालों को छूकर निकल गई। एक मिशन के दौरान जब मैं रात्रि में मचान पर मोर्चा संभाले था, तभी अचानक गुलदार ने हमला कर दिया। क्योंकि मैं चौकन्ना था, सो बाल-बाल बच गया। इन घटनाओं ने मुझे सिखाया ही।

प्रश्न: वन्यजीवों, खासकर गुलदार-बाघ के हमलों के बढऩे की वजह क्या मानते हैं।
-देखिये, इसकी दो वजह हैं। पहली मानवजनित और दूसरी स्वाभाविक। यह किसी से छिपा नहीं है कि जंगल में मानव हस्तक्षेप बढ़ा है। वास्तविक जंगल साफ हो गए हैं और इसी के साथ गुलदार जैसे जानवरों को जंगल में मिलने वाला आहार सिमटा है। पलायन के चलते खेतों में झाड़ियां पसर आ आई हैं तो घरों के पास भी जंगल पनपा दिया है। प्राकृतिक कारणों पर गौर करें तो गुलदारों की संख्या बढ़ी है। यही नहीं, अशक्तता, घायल अथवा बीमारी की दशा में भी ये आदमखोर बनते हैं। कहने का आशय ये कि भूख ही गुलदारों को आदमखोर बना रही है।

प्रश्न: आपने पलायन की बात की, क्या इसके पीछे एक बड़ी वजह गुलदार तो नहीं। यह स्थिति तब है, जबकि पहाड़ में मनुष्य ने गुलदार की जगह पर अतिक्रमण नहीं किया है। क्या मानते हैं।
-ऐसा नहीं कि पहले गुलदार के हमले नहीं होते थे, होते थे पर काफी कम। कारण ये कि तब पशुपालन बहुत अधिक था। अनुपयोगी जानवर जंगल में छोड़ दिए जाते थे। कभी-कभार चराई में गए मवेशियों को भी गुलदार मार डालता था। अब स्थितियां बदल गई हैं। पशुपालन सिमटने के साथ ही खेती छूटी है। ऐसे में पलायन के पीछे गुलदार का आतंक भी वजह है। पौड़ी जिले के पौखाल क्षेत्र के जयगांव को ले लीजिए। 2009 तक वहां 38 लोगों को गुलदार ने मार डाला था। इसके बाद भी सिलसिला थमा नहीं। इससे वहां से पलायन हुआ है। ऐसी स्थिति अन्य गांवों में भी है।

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प्रश्न: बदली परिस्थितियों में गुलदार के व्यवहार में परिवर्तन आया है, आप क्या मानते हैं।

-जी हां, इसकी बड़ी वजह है कैनाइल डिस्टैंपर वायरस। यह कुत्तों में अधिक पाया जाता है और गुलदार कुत्तों का ज्यादा शिकार करता है। ऐसे में यह वायरस गुलदारों में भी फैला है। इसके कारण इनमें भय कम हुआ है और मनुष्य के करीब आ जा रहे हैं। लिहाजा, गहन अध्ययन के बाद बचाव के तरीकों पर ध्यान देना होगा।

प्रश्न: आप ग्रामीण क्षेत्र में रह रहे हैं और अब तक 49 आदमखोर मार चुके हैं, मगर ये स्थायी समाधान तो नहीं। ऐसा क्या हो कि मानव भी महफूज रहे और गुलदार भी।
-ताली दोनों हाथ से बजती है। गुलदार जंगल से बाहर न आएं, इसके लिए वासस्थल विकास पर फोकस करना होगा। यानी, जंगल में भोजन-पानी के इंतजाम पर ध्यान देने की जरूरत है। बात समझने की है कि जब जंगल में पर्याप्त शिकार होगा तो गुलदार बाहर क्यों आएगा। जहां तक तात्कालिक समाधान की बात है तो हमें जीवनशैली में बदलाव लाना होगा। शाम छह से आठ बजे के बीच गुलदार ज्यादा वारदातें करता है। यदि दो घंटे के इस वक्त को सुरक्षित निकाल लें तो हमलों में काफी कमी आ जाएगी। जहां गुलदार सक्रिय है, वहां उस पर जब तक निगाह है तभी तक हम सुरक्षित हैं। इसके लिए खुद का सिस्टम डेवलप करना होगा।

प्रश्न: ये कहां तक उचित है कि गुलदार से आत्मरक्षा के लिए ग्रामीणों को शस्त्र लाइसेंस दिए जाएं।

-ग्रामीणों को शस्त्र लाइसेंस देना ठीक नहीं है। इससे गुलदारों को समाप्त होते देर नहीं लगेगी। साथ ही पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।

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प्रश्न: वन विभाग का क्या रुख है और स्थिति से निबटने को उसकी क्या भूमिका होनी चाहिए।
-बात समझने की है कि यह द्वंद्व जीवनपर्यंत चलेगा, लेकिन इसे न्यून किया जा सकता है। वन विभाग को चाहिए कि वह गांवों में युवक एवं महिला मंगल दलों को प्रशिक्षित करे। गांव को जोडऩे वाले रास्तों के साथ ही गांवों के आसपास के इलाकों को खुला रखने में मदद करे। ग्राम स्तर पर ऐसी टीम बनाए, जो संघर्ष को थामने के लिए त्वरित बल की तरह कार्य करे। बूढ़े, अशक्त गुलदारों की पहचान कर उन्हें पकड़कर अन्यत्र शिफ्ट करे। स्कूल, गांवों में जागरूकता अभियान चलाए। सबसे महत्वपूर्ण ये कि वह जंगलों में वन्यजीवों के लिए भोजन-पानी का इंतजाम करे।

एक परिचय

  • नाम: लखपत रावत
  • जन्म: 15 जनवरी 1964
  • ग्राम: ग्वाड़ मल्ला, गैरसैण (चमोली)
  • संप्रति: ब्लाक संसाधन केंद्र, गैरसैण में समन्वयक
  • मकसद: भावी पीढ़ी बुनियाद मजबूत करने के साथ ही जनसामान्य को आदमखोर बाघ-गुलदार से निजात दिलाना और इन खूबसूरत वन्यजीवों की प्रजाति को बचाना।

सफर:
  • 1984 में प्राथमिक विद्यालय भविष्य बदरी जोशीमठ में बतौर सहायक अध्यापक नियुक्त
  • 2000 में शूटिंग की विधा का इस्तेमाल आदमखोरों के खौफ से मुक्ति दिलाने में करने का निश्चय
  • 2002 में आदि बदरी में पहला आदमखोर गुलदार मार गिराया, इसके बाद शिकारी के रूप में मिली पहचान
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मारे आदमखोर गुलदार-बाघ
जनपद, संख्या
चमोली, 14
टिहरी, 13
पौड़ी, 06
अल्मोड़ा, 05
उत्तरकाशी, 03
बागेश्वर, 02
पिथौरागढ़, 02
चंपावत, 02
नैनीताल, 02
(नोट: नैनीताल में बाघ और बाकी जगह गुलदार)

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