यहां आज भी जिंदा है सदियों से चली आ रही परंपरा
देहरादून जिले के जौनसार बावर के तीज-त्योहारों का स्वरूप भी बदल डाला हो, लेकिन किसानों के प्रमुख पर्व कोदों (मंडुवा) की नैठावण की शान आज भी बरकरार है।
चकराता, [भीम सिंह चौहान]: बदलते दौर ने भले ही जौनसार बावर के तीज-त्योहारों का स्वरूप भी बदल डाला हो, लेकिन किसानों के प्रमुख पर्व कोदों (मंडुवा) की नैठावण की शान आज भी बरकरार है। हालांकि, क्षेत्र में मंडुवे की खेती का रकबा घटा है, लेकिन किसानों में पर्व को लेकर उत्साह आज भी पहले जैसा ही है। पर्व नजदीक आते ही क्षेत्र में मंडुवा समेत अन्य फसलों की निराई-गुड़ाई तेज हो गई है और साथ में चल रही है पर्व की तैयारी। 16 अगस्त को क्षेत्र के 65 गांवों में कोदों के नैठावण पर्व की रौनक देखते ही बनेगी।
देहरादून जिले में डेढ़ लाख से ज्यादा की आबादी वाले जौनसार बावर के रीति-रिवाज, खान-पान, वेशभूषा व मेले-उत्सव शेष देश से बिल्कुल अलग हैं। इस जनजातीय क्षेत्र के पर्व बिस्सू, माघ, पांइता, जागड़ा, ग्यास, जौनसारी दीवाली व नुणाई पर्व से तो सब वाकिफ हैं, लेकिन किसानों के प्रमुख पर्व कोदों की नैठावण के बारे में क्षेत्र से बाहर के लोग कम ही जानते हैं। किसानों के पर्व कोदों की नैठावण का सीधा संबंध मंडुवे की निराई-गुड़ाई से है। हर साल 16 अगस्त को धूमधाम से मनाए जाने वाले इस पर्व की तैयारियां इन दिनों जोरों पर हैं।
एक दौर था कि जब क्षेत्र में किसान पांच-सात खेतों में कोदों की बुआई करते थे, जिनकी गुड़ाई में पूरा महीना लग जाता था। पौराणिक परंपरा के तहत हर गांव के लोग एक-दूसरे के खेतों में जाकर हाथ बंटाते हैं। महीनेभर में गुड़ाई का काम निपटाकर वे सावन की विदाई के बाद सक्रांति के दिन कोदों की नैठावण मनाते हैं। खासकर चार खतों विशायल, बाना, अठगांव व शिलगांव के 65 गांवों में आज भी पर्व को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दौरान पंचायती आंगन लोक गीतों से गुलजार रहते हैं। साथ ही विशेष भोज का दौर भी चलता है।
कम हुआ युवा पीढ़ी का रुझान
क्षेत्र के बुजुर्ग काश्तकार गुमान सिंह (कोटा), हंसराम (डिमऊ), गंगा सिंह नेगी (डांडा), काशीराम (दोऊ), सीताराम शर्मा (देसोऊ), धर्म सिंह (सिमोग), नारायण सिंह (लेल्टा) आदि बताते हैं कि नब्बे के दशक तक भी जौनसार बावर का मुख्य व्यवसाय खेतीबाड़ी था। किसान मंडुवे की खेती खूब करते थे। इसकी गुड़ाई में पूरा महीना लग जाता था। लेकिन, आज लोग नाममात्र को ही कोदों की खेती करते हैं। युवा पीढ़ी का रुझान तो खेतीबाड़ी की तरफ बिल्कुल नहीं है। पर्व के बारे में भी युवा वर्ग कम ही जानता है।
पर्व से जुड़े पारंपरिक गीत
किसानों का पर्व कोदों की नैठावण के अपने कुछ पारंपरिक गीत भी हैं। लेकिन, जैसे-जैसे मंडुवे की खेती घट रही है, गीतों का चलन भी कम होता जा रहा है। खेतों में गुड़ाई के समय महिलाएं एक सुर में 'नैडो आओ, कोदों को गोडावणो', 'पाणी की बरखा लागी, पातोईया मेरी चुंअदी लागी', 'दुई बिजाया कोदों गोडी, आवदी करमा तंबाकू शोटी' जैसे गीत गाती थीं।
हर घर में विशेष भोज
पौराणिक परंपरा के तहत कोदों की नैठावण में सूजी का हलवा बनाकर परोसा जाता है, लेकिन मांस आदि का भी कोई परहेज नहीं है। पर्व पर अब लोग मांस-मछली बनाकर एक-दूसरे को अपने घर बुलाते हैं। पंचायती आंगनों में किसान व महिलाएं ढोल बाजों के साथ हारूल, झेंता व नाटियों जैसे नृत्यों की छटा बिखेरते हैं। जनजातीय क्षेत्र की चार खतों के करीब 65 गांवों में किसानों के इस पर्व की विशेष धूम रहती है।
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