लोक रंगों को संरक्षण की दरकार
जागरण संवाददाता, देहरादून: जब शब्द नहीं थे, तब मनुष्य ने पत्थरों और लाठी-डंडों को टकराकर सुर उत्पन्न
जागरण संवाददाता, देहरादून: जब शब्द नहीं थे, तब मनुष्य ने पत्थरों और लाठी-डंडों को टकराकर सुर उत्पन्न किए। इन्हीं सुरों पर उछलकूद कर उसने भावों को अभिव्यक्ति दी और यह नृत्य का पहला स्वरूप बना। इसी प्रकार माटी के रंग फिजां में घुले और लोक की जुबां पर चढ़े तो लोकगीत बन गए। लेकिन, बदलते वक्त के साथ लोक के रंग भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए और उत्तराखंडी लोक संगीत भी इससे अछूता नहीं है। जरा याद कीजिए, जब उत्तराखंड की कठिन जीवनशैली के बीच थड़िया, चौंफला, बाजूबंद, छपेली जैसे लोकगीत-लोकनृत्य जनमानस में उल्लास का रंग घोल देते थे। दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद गांवों में घर-आंगन अथवा खलिहानों में फूटने वाले लोक के इन रंगों में हर कोई थकान भूल जाता था। धीरे-धीरे लोक के सुर से फूटे गीत फिजां मे घुले तो लोक की आत्मा बन गए। यदि ऐसा नहीं होता तो 'बेडु पाको बारामासा..' गीत दुनियाभर में नहीं गुनगुनाया जाता। परिस्थितियां बदली, संसाधन बढ़े तो जाहिर है लोक के ये रंग भी प्रभावित हुए। आज जरूरत लोक रंगों को संरक्षित करने की है। चुनौतियां हैं, लेकिन ऐसी नहीं कि इनसे पार न पाया जा सके। आवश्यकता थोड़े से प्रयास करने की है। 'दैनिक जागरण' के तत्वावधान में 21 दिसंबर को होने वाले 'उत्तराखंड स्वरोत्सव-2014' में शामिल होने वाले कुछ लोककलाकारों से बातचीत में भी यह बात निकलकर आई।
'लोकगीत, उत्तराखंडी लोक की आत्मा हैं। पहले लोकगीतों को सुनने वाले भीतर ही थे, आज बिखर गए हैं। ऐसे में लोकगीतों को संजोने के लिए व्यावसायिक माध्यम बनाया गया। कुछ वर्ष ठीक चला, लेकिन अब कई चुनौतियां हैं। ऐसे में लोकगीतों के संरक्षण के लिए सरकार के साथ ही सभी जागरूक लोगों को पहल करनी होगी।'
-नरेंद्र सिंह नेगी, प्रसिद्ध लोकगायक
'लोक रंगों पर भी पाश्चात्य प्रभाव नजर आ रहा है। ऐसे में जरूरी है कि हम अपने मूल को बचाए रखें और भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति सौंपे। हालांकि, वर्तमान हालात फिलहाल ठीक कहे जा सकते हैं, लेकिन इसे और बेहतर करने के प्रयास करने होंगे। यदि देर होगी तो इसमें अस्थिरता आ जाएगी।'
-प्रीतम भरतवाण, प्रसिद्ध लोकगायक
'लोक में रचे-बसे गीत हमारी संस्कृति की पहचान है। लेकिन, नई पीढ़ी लोकगीतों के बारे में ज्यादा नहीं जानती। इसके लिए जरूरी है कि पर्वतीय अंचलों में हमारे जो भी लोककलाकार हैं, उन्हें संरक्षण की दरकार है। यह कदम सरकार को उठाना होगा। साथ ही लोकगीत-नृत्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना होगा।'
-संगीता ढौंडियाल, लोकगायिका