मुकाबला मोदी की लहर बनाम वोट बैंक
विकास धूलिया, देहरादून
उत्तराखंड में मतदान के लिए यूं तो अभी लगभग दो सप्ताह का वक्त बाकी है लेकिन महासमर के लिए सियासी बिसात पूरी तरह बिछ चुकी है। महारथी मोर्चे पर जम चुके हैं तो प्रतिद्वंद्वी से लोहा लेने के लिए मुद्दों की शक्ल में अस्त्र-शस्त्र भी चलाए जाने लगे हैं। पिछले महीने-डेढ़ महीने से चल रही इस कवायद के बाद अब इतना स्पष्ट हो गया है कि भाजपा उत्तराखंड में भी मोदी की लहर पर ही सवार है, जबकि उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की पूरी रणनीति अपने परंपरागत वोट बैंक के भरोसे पर टिकी है। देशभर की तरह उत्तराखंड में भी भाजपाई नमो-नमो का जाप कर रहे हैं तो इसके ठीक उलट कांग्रेस कोशिश कर रही है कि उसका परंपरागत वोट बैंक दरके नहीं और किसी भी तरह इसे सुरक्षित रखा जाए। चंद लफ्जों में बयां किया जाए तो राज्य में मुकाबला मोदी की लहर और कांग्रेसी वोट बैंक में नजर आ रहा है।
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लहर को भुनाने की कवायद
मोदी लहर पर सवार भाजपा नमो के जाप को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही। फिर चाहे मोदी चाय की बात हो या फिर चाय की चुस्की के दौरान मोदी से सीधा संवाद अथवा थ्री डी कार्यक्रम। 'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' के नारे को हर जुबां पर लाने की कोशिशें चल रही हैं। इसके लिए वह हर टोटका अपनाया जा रहा, जो सीधे मोदी से लोगों को जोड़ता है। भाजपा प्रत्याशी और उनके स्टार प्रचारक जब पब्लिक से रूबरू हो रहे हैं तो खुद से पहले मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की बात कर रहे हैं। मतलब यह कि कोशिश उत्तराखंड में भी मोदी की लहर को ही भुनाने की है।
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देवभूमि से जुड़ाव की बात
गत दिसंबर में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी देहरादून आए तो जनसभा में उनके संबोधन का लगभग आधा समय उत्तराखंड पर ही केंद्रित रहा। इस दौरान उन्होंने मक्का से तुलना करते हुए देवभूमि को स्प्रिचुअल इनवायरमेंटल जोन का विशेषण देकर पर्यटन विकास की संभावनाओं की ओर संकेत किया तो उत्तराखंड की सैन्य परंपरा से लेकर पलायन का जिक्र कर साफ कर दिया कि वह राज्य की जन भावनाओं, कमियों और ताकत से पूरी तरह वाकिफ हैं। उन्होंने स्थानीय समस्याओं को खुद से जोड़ने की कोशिश की। यही नहीं, जून की भीषण दैवीय आपदा के तत्काल बाद भी मोदी उत्तराखंड आए थे लेकिन तब न तो सरकार ने उन्हें आपदाग्रस्त क्षेत्रों में जाने की इजाजत दी और न ही केदारनाथ धाम के पुनर्निर्माण के प्रस्ताव को मंजूरी। उन्होंने अपने संबोधन में यह कसक भी जाहिर की। इस बात को अब पार्टी के लोकसभा प्रत्याशी कैश करा रहे हैं।
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मोदी में अटल की छवि व उम्मीद
प्रधानमंत्री पद के दावेदार होने के बावजूद मोदी ने जिस तरह उत्तराखंड की जमीनी हकीकत से वाकफियत दिखाई, उसे उत्तराखंड में भाजपा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से जोड़ने की रणनीति अपना रही है। अलग राज्य निर्माण के साथ ही जिस तरह अटल ने उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा और विशेष पैकेज दिया, उसका हवाला देकर भाजपा नेता सूबे की जनता को भरोसा बंधा रहे हैं कि प्रधानमंत्री बनने पर मोदी उत्तराखंड को वह सब कुछ देंगे, जिसकी उसे विकास के लिए जरूरत है। मोदी में अटल की छवि प्रतिबिंबित करने के साथ ही देवभूमि से उनकी हिंदूवादी छवि को भी जोड़ा जा रहा है।
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एससी, एसटी पर भरोसा
पर्वतीय इलाकों में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वोटरों का तबका अहम है, जिस पर कांग्रेस को पूरा भरोसा है। बसपा की तमाम कोशिशों के बाद भी यह वर्ग कांग्रेस से छिटका नहीं है। भाजपा भी बहुत ज्यादा इसमें सेंध लगाने में सफल नहीं रही है। राज्य की कांग्रेस सरकार ने टिहरी में रंवाल्टा को पिछड़ा क्षेत्र घोषित किया, जबकि जौनपुर को जनजातीय क्षेत्र में शामिल किया। साथ ही कुमाऊं में धारचूला-मुंस्यारी की 143 जातियों को आरक्षण के दायरे में लाने की पहल की। गोरखा समुदाय भी कांग्रेस को अपने पक्ष में लगता है। इस सबके बूते कांग्रेस को चुनावी फायदे की उम्मीद है तो शायद गलत नहीं।
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मैदान में मुस्लिम वोट बैंक से उम्मीद
राज्य के मैदानी इलाकों में मुस्लिम वोट बैंक कई जगह महत्वपूर्ण साबित होता आया है। खासकर हरिद्वार, टिहरी और नैनीताल लोकसभा सीटों पर। हालांकि दो अन्य सीटों पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा में भी इस तबके की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। कांग्रेस की इस वोट बैंक में अब तक पकड़ भी ठीक रही है, लेकिन सपा-बसपा के भी मैदान में उतरने से उसके सामने इसे बचाए रखने की चुनौती है। हालांकि, मोदी के नाम का भय दिखाकर कांग्रेस इस तबके के एकमुश्त अपने पक्ष में ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश कर रही है। यह यह नतीजे बताएंगे कि कांग्रेस इसमें कितनी कामयाब रही।
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वैध व अवैध बस्तियों पर नजर
कांग्रेस के लिए सूबेभर में वैध और अवैध बस्तियां भी एक बड़े वोट बैंक की भूमिका में हैं। राज्यभर में इनकी संख्या 600 से अधिक है। इनमें से अधिकांश देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जिलों में हैं। यानी, कम से कम तीन लोकसभा सीटों पर ये प्रभावी कही जा सकती हैं। इन बस्तियों में पनपी वोट की फसल को कांग्रेस का परंपरागत बैंक माना जाता है, लेकिन तमाम बस्तियों में अब भाजपा, बसपा, सपा भी सेंध लगाने की कोशिश में हैं। सभी सियासी दलों की नजर इन वोटरों पर है और इसके लिए येन-केन-प्रकारेण इन्हें पक्ष में करने की कवायद चरम पर है।