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सता रहा भितरघात का भय

By Edited By: Published: Wed, 23 Apr 2014 01:01 AM (IST)Updated: Wed, 23 Apr 2014 01:01 AM (IST)
सता रहा भितरघात का भय

विकास धूलिया, देहरादून

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कहते हैं न कि प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है, यह बात चुनाव पर भी सटीक बैठती है। वह इसलिए क्योंकि चुनाव भी तो एक तरह के युद्ध ही हैं, जिसमें आमने-सामने से लेकर त्रिकोणीय और बहुकोणीय मुकाबले में विजेता के सिर ताज सजता है। अब क्योंकि सब कुछ जायज है, लिहाजा सियासी बिसात पर जीत-हार के लिए हर तरह के मोहरे बढ़ाए जाते हैं, चक्रव्यूह रचे जाते हैं। एक ऐसा ही राजनैतिक हथियार है भितरघात। सीधे लफ्जों में कहें तो विश्वासघात या पीठ पर छुरा घोंपना। यह हथियार किस कदर प्रभावी साबित होता है, इस तथ्य से समझा जा सकता है कि कई दफा इसी वजह से सरकारें पलट जाती हैं या फिर पार्टियां मामूली अंतर से सत्ता के स्पर्श से चूक जाती हैं।

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विस चुनाव में रूबरू हुई भाजपा

भितरघात का सबसे बड़ा उदाहरण राज्य का पिछला, यानी 2012 में हुआ विधानसभा चुनाव रहा। 70 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा केवल इसलिए सत्ता में वापसी करने से चूक गई क्योंकि उसके हिस्से 32 सीटें ही आई जबकि कांग्रेस एक सीट की बढ़त के साथ 33 सीटों पर काबिज हो गई। सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते लाजिमी तौर पर कांग्रेस को ही सरकार बनाने का मौका मिला और भाजपा मन मसोस कर रह गई। दरअसल, इस विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एक बड़ा दांव खेला, वह था अपने सिटिंग 11 विधायकों के टिकट एक साथ काट दिए। नतीजतन, पार्टी में बवाल हो गया। कई सीटों पर टिकट से वंचित तत्कालीन भाजपा विधायकों ने चुनाव मैदान में ताल ठोक दी। वह खुद तो नहीं जीत पाए मगर इस कारण भितरघात के हालात ने भाजपा प्रत्याशियों को भी ढेर कर दिया। यहां तक कि भाजपा के चुनाव रथ के सारथी और तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी भी पराजित हो गए। वह कोटद्वार सीट से शैलेंद्र रावत के स्थान पर चुनाव लड़े।

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इस चुनाव में भी एक बड़ा फैक्टर

इस लोकसभा चुनाव में भी भितरघात एक बड़े फैक्टर के रूप में मौजूद है। राज्य में गहरी जड़ें रखने वाली भाजपा और कांग्रेस के साथ ही क्षेत्र विशेष में प्रभावी सपा और बसपा भी इससे अछूती नहीं हैं। दिलचस्प बात यह कि भितरघात राज्य की सभी पांचों सीटों पर किसी न किसी रूप में प्रभावी नजर आ रहा है। इस दफा माहौल भाजपा के पक्ष में दिख रहा है, लिहाजा भितरघात का सबसे ज्यादा सामना भी इसी पार्टी को करना पड़ रहा है। हालांकि हालात को भांपकर भाजपा व कांग्रेस समेत सभी सियासी दल डिजास्टर मैनेजमेंट में पहले से ही जुट गए हैं लेकिन यह बात अपनी जगह सच है कि दलगत असंतोष के इस बड़े स्वरूप को पूरी तरह खत्म करना नामुमकिन है। यही वजह है कि सियासी पार्टियों की कोशिश है कि किसी तरह मतदान तक इसके असर को न्यूनतम किया जा सके।

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सबसे ज्यादा असरदार हरिद्वार में

भितरघात राज्य में सबसे ज्यादा अगर कहीं असर दिखाएगा, तो वह होगी हरिद्वार लोकसभा सीट। दरअसल, इस लोकसभा सीट की खासियत ही यह है कि यहां भाजपा व कांग्रेस से लेकर बसपा व सपा तक का भी ठीकठाक जनाधार कहा जा सकता है। 2004 के लोकसभा चुनाव में यह सीट सपा के खाते में गई जबकि 2009 के आमचुनाव में यहां कांग्रेस ने परचम फहराया। राज्य बनने के बाद हुए तीन विधानसभा चुनाव में हालांकि सपा एक भी सीट नहीं जीत पाई मगर बसपा राज्य की तीसरी सबसे बड़ी राजनैतिक ताकत के रूप में उभरी। कांग्रेस व भाजपा का बराबर वर्चस्व तो यहां रहता ही आया है। यही वजह है कि इस सीट पर सभी दलों में भितरघात की संभावना भी सबसे अधिक है। भाजपा के वरिष्ठ नेता व टिकट के दावेदार विधायक मदन कौशिक हालांकि अब पार्टी प्रत्याशी रमेश पोखरियाल निशंक के प्रचार में जुट गए हैं, लेकिन उनके सभी समर्थकों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।

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हर दल भितरघात की जद में

मुख्यमंत्री हरीश रावत स्वयं हरिद्वार के सांसद हैं, लिहाजा पिछले पांच साल के दौरान उनसे खफा चल रहे पार्टी नेता उन्हें झटका दे सकते हैं। हरिद्वार में प्रभावी बसपा के दो विधायक राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री सुरेंद्र राकेश और हरिदास को बसपा सुप्रीमो मायावती पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण कुछ समय पहले निलंबित कर चुकी हैं। इन विधायकों की कांग्रेस से नजदीकी जगजाहिर है, इसलिए भितरघात भी तय है। समाजवादी पार्टी हालांकि पिछले एक दशक से अपना खोया हुआ जनाधार तलाश रही है लेकिन लगता नहीं कि इस बार भी उसकी तलाश पूरी हो पाएगी। कारण, इस सीट पर सपा ने अपने पूर्व घोषित प्रत्याशी को बदल कर अनीता सैनी को टिकट दे दिया। इसका वहां भारी विरोध हो रहा है लेकिन सपा के सर्वेसर्वा नेता जी, यानी मुलायम सिंह ने अब प्रत्याशी बदलने से इन्कार कर दिया है। साफ है कि इस स्थिति में असंतुष्ट धड़ा पार्टी से छिटकेगा।

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टिहरी और पौड़ी भी अछूती नहीं

टिहरी सीट पर भाजपा प्रत्याशी महारानी माला राज्यलक्ष्मी शाह के प्रति भाजपा नेता मुन्ना सिंह चौहान का असंतोष रंग दिखा सकता है, हालांकि अब उनके सुर धीमे पड़ चुके हैं। कांग्रेस में पूर्व सीएम विजय बहुगुणा के विरोधी गुट के माने जाने वाले पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय व शूरवीर सिंह सजवाण की सक्रियता पर सबकी नजर रहेगी। पौड़ी गढ़वाल संसदीय सीट पर हालांकि भाजपा भुवन चंद्र खंडूड़ी की दावेदारी से खासी आश्वस्त है मगर पिछले विधानसभा चुनाव का कटु अनुभव भी पार्टी के सामने है। वैसे इस लोकसभा क्षेत्र में असंतोष का इजहार करने वाले वरिष्ठ नेता मोहन सिंह रावत गांववासी को भाजपा नेता स्टार प्रचारक बना साधने की कोशिश कर चुके हैं। हां, कांग्रेस के लिए इस सीट पर भितरघात की सर्वाधिक संभावना है। दिग्गज सतपाल महाराज के भाजपा में जाने के बाद उनके समर्थक इस चुनाव में जरूर कुछ न कुछ कमाल दिखाने की कोशिश कर सकते हैं। वैसे भी गढ़वाल में कांग्रेस कई गुटों में बंटी हुई है।

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कुमाऊं में नैनीताल में ज्यादा खतरा

अल्मोड़ा संसदीय सीट राज्य की एकमात्र अनुसूचित जाति सुरक्षित सीट है और पिछले लोकसभा चुनाव के ही दिग्गज इस बार भी आमने-सामने हैं। कांग्रेस से सिटिंग सांसद प्रदीप टम्टा तो भाजपा से विधायक अजय टम्टा। सिटिंग सांसद को टिकट मिलने के कारण कांग्रेस में तो सतह पर असंतोष नहीं दिख रहा मगर भाजपा में जरूर टिकट के अन्य दावेदारों का असंतोष रंग दिखा सकता है। इनमें से एक सज्जन लाल टम्टा ने तो बकायदा मैदान में ताल ठोकी जबकि दूसरे असंतुष्ट चनरराम को मना लेने का पार्टी नेताओं का दावा है। नैनीताल लोकसभा क्षेत्र में टिकट को लेकर भाजपा में सबसे ज्यादा और सबसे पहले बवाल हुआ। पूर्व केंद्रीय मंत्री व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष बची सिंह रावत ने पैनल में नाम न होने पर सार्वजनिक तौर पर अपना गुस्सा दिखाया, हालांकि अब उन्हें प्रदेश चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक बना साध लिया गया है। उधर, कांग्रेस में बुजुर्ग नारायण दत्त तिवारी के तेवरों से हड़कंप है। आलाकमान ने उनके पुत्र रोहित शेखर को टिकट की मांग को कोई तवज्जो नहीं दी। अब तिवारी बगैर चुनाव लड़े ही क्षेत्र में सक्रिय हो रहे हैं तो इसका सीधा खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ेगा।

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