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इस वीर ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से कर दिया था इन्कार

23 अप्रैल 1930 को एक वीर गढ़वाली सैनिक ने पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलानें से इन्कार कर दिया था। इससे अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये थे।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sun, 23 Apr 2017 05:10 PM (IST)Updated: Mon, 24 Apr 2017 05:07 AM (IST)
इस वीर ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से कर दिया था इन्कार
इस वीर ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से कर दिया था इन्कार

चौखुटिया, [उमराव सिंह नेगी]: यूं तो आजादी की लड़ाई में अपनी कुर्बानी देने वाले अमर शहीदों की लंबी फेहरिस्त है। तकरीबन डेढ़ सौ वर्ष से अधिक समय तक चली इस लड़ाई में सुभाष चंद्र बोस, सरदार भगत सिंह, उधम सिंह व अशफाक उल्ला खां जैसे कई वीर सदा-सदा के लिए अमर हो गए। ऐसे ही एक उत्तराखंड के अमर सेनानी हैं वीर चंद्र सिंह गढ़वाली। 23 अप्रैल 1930 को उन्‍होंने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। उन्‍हें पेशावर कांड का अमर सेनानी के नाम से जाना जाता है।

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वीर चंद्र सिंह का जन्म 25 दिसंबर 1899 में गढ़वाल के चमोली जनपद अंतर्गत चौहान पट्टी के रैंणीसेरा गांव में जाथली सिंह भंडारी के घर में हुआ। दूर गांव की माटी में रचे-बसे एवं बढ़े चंद्र सिंह गरीबी के चलते प्राइमरी तक ही पढ़ाई कर सके। अपने परिवार की दयनीय हालत के चलते उन्होंने रोजगार के लिए छोटी उम्र में ही घर-गांव छोड़ दिया एवं गाइड बनकर अंग्रेजी शासकों के साथ काम करना शुरू कर दिया।

चूंकि गढ़वाली के नस-नस में अपने माटी व थाती के प्रति अटूट प्रेम भरा था, इसके चलते उन्हें यह काम रास नहीं आया। इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई तथा अंग्रेजों ने गांव-गांव जाकर सैनिकों की भर्ती शुरू कर दी। इसी दौरान रैंणीसेरा गांव में लगे कैंप में बीर चंद्र सिंह भी सेना में शामिल हो गए। 11 सितंबर 1894 में उन्हें लैंसडाउन स्थित गढ़वाल राइफल की छठी कंपनी में नियुक्ति मिल गई।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गढ़वाली तुर्की व मेसोपोटानिया सहित अन्य स्थानों पर लड़ाई के मोर्चे पर गए। उनकी वीरता को देख उन्हें सैनिक से हवलदार बना दिया गया तथा गढ़वाली की उपाधि भी मिल गई। आखिर में जब प्रथम महायुद्ध समाप्त हो गया तो अंग्रेज शासकों ने जीवित बचे आधे से अधिक सैनिकों को वापस अपने घरों को भेज दिया। इन्हीं में चंद्र सिंह भी शामिल थे।

यहीं से उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ नफरत के भाव उत्पन्न हो गए। इसी दौरान महात्मा गांधी का आंदोलन व जलियावाला जैसे क्रूर कांड ने समूचे देशवासियों को झकझोर कर रख दिया। घटना से चंद्र सिंह भी बेहद आहत हो उठे। देश में आंदोलन के चलते अंग्रेजों ने गढ़वाली सहित अन्य सैनिकों को वापस बुला लिया। आजादी की लड़ाई को देख सैनिक होते हुए भी चंद्र सिंह के अंदर देशभक्ति की भावना जागने लगी।

इसी बीच 23 अप्रैल 1930 को पेशावर कांड का एतिहासिक दिन आ गया, जब चंद्र सिंह गढ़वाली ने गढ़वाल राइफल के अपने सभी साथियों के साथ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया तथा पठानों के शांतिपूर्ण जुलूस पर गोली चलाने से मना कर दिया। आदेश न मानने के आरोप में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। साथ ही उन्हें आजीवन कालापानी, संपत्ति जब्त व हवलदारी समाप्ति की भी सजा दे दी गई। बाद में अंग्रेजों ने उन्हें 26 दिसंबर 1941 को रिहा कर दिया।

इस प्रकार पेशावर कांड के नायक चंद्र सिंह के 11 वर्ष तीन माह 18 दिन जेल में ही कटे। जो रिहा होने के बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हो गए। इस दौरान फिर उन्हें जेल की सजा काटनी पड़ी तथा 1945 में रिहा कर दिए गए।

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