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पहले खुद लड़े, अब तैयार कर रहे लड़ाके

सर्वेश तिवारी, अल्मोड़ा पहले सीमा पर पूरे मनोयोग से देश सेवा की और अब सेवानिवृत्ति के बाद भी देश से

By JagranEdited By: Published: Fri, 24 Mar 2017 01:01 AM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 01:01 AM (IST)
पहले खुद लड़े, अब तैयार कर रहे लड़ाके
पहले खुद लड़े, अब तैयार कर रहे लड़ाके

सर्वेश तिवारी, अल्मोड़ा

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पहले सीमा पर पूरे मनोयोग से देश सेवा की और अब सेवानिवृत्ति के बाद भी देश सेवा का जज्बा दिल में हिलोरें मार रहा है। हालांकि, अब उन्हें सीमा पर जाने का मौका तो नहीं मिलेगा, लेकिन दिल की ख्वाहिश पूरा करने के लिए देश के इस सच्चे सिपाही ने इसका भी तोड़ निकाल डाला है।

बात हो रही है 60 की दहलीज पर पहुंच चुके गजेंद्र सिंह रावत की। वह हवलदार के पद से सेवानिवृत्त हुए और लौट आए अल्मोड़ा जिले के हवालबाग विकासखंड स्थित अपने गांव पत्थरकोट। हवालबाग में कभी छह जिलों का भर्ती पूर्व प्रशिक्षण केंद्र हुआ करता था, जिसे बाद में गदरपुर शिफ्ट कर दिया गया। गजेंद्र यहां युवाओं को प्रशिक्षण देते थे, लेकिन केंद्र जब गदरपुर शिफ्ट हुआ तो उन्होंने फैसला किया कि अब खुद के बूते ही युवाओं को सेना में जाने के लिए तैयार करेंगे।

इसके लिए गजेंद्र ने दौलाघट मिनी स्टेडियम को चुना और वहां युवाओं को निश्शुल्क ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी। उनके पहले ही बैच में कई गांवों के 34 गरीब युवा पहुंचे। महज तीन माह के प्रशिक्षण के बाद इनमें से 12 ने सेना में भर्ती के सभी टेस्ट पास कर लिए। ये सभी युवा इसी माह सेना में प्रशिक्षण शुरू करेंगे।

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फील्ड में तो भारत-पाकिस्तान हैं हम

गजेंद्र का कहना है कि वह बच्चों (प्रशिक्षण के लिए आए युवकों) से बेहद प्यार करते हैं। लेकिन, जब बच्चे फील्ड में होते है तो उनका रवैया भारत-पाकिस्तान जैसा होता है। सुबह पांच बजते ही ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। इस दौरान वह युवकों को वार्मअप, रनिंग, बीम व अन्य एक्सरसाइज कराते हैं। उन्होंने 34 युवाओं को इस तरह तैयार किया कि जब वे 400 लोगों के साथ दौड़ लगाएं तो पीछे न रहें। फील्ड में वह युवकों को डांटते भी थे, लेकिन फील्ड के बाहर एक दोस्त की तरह उन्हें समझाते भी थे।

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खुद खरीदकर दिए जूते

ऐसा नहीं कि गजेंद्र केवल मुफ्त में युवाओं को तैयार कर रहे हैं, बल्कि उनकी निगाह उन युवाओं पर ज्यादा रहती है, जो गरीब तबके से हैं और उनके पास दौड़ लगाने को जूते तक नहीं। उनके पहले ही ग्रुप में कुछ युवक बेहद गरीब परिवारों से थे, जिनमें एक लड़की भी थी। सभी को उन्होंने अपने पैसों से जूते खरीदकर दिए।

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काश! मैं आज भी आर्मी में होता

गजेंद्र को मलाल है कि वह अब आर्मी में नहीं हैं। दरअसल, वह उस दौर में आर्मी में थे, जब आर्मी मैन को गोली मारने की इजाजत नहींहोती थी। अगर ऐसा कर दिया तो कोर्ट मार्शल कर दिया जाता था। कहते हैं, उस वक्त पाकिस्तान की फौज पर फाय¨रग के लिए इजाजत लेनी पड़ती थी, लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज गोली मारने का आदेश हमारे हर फौजी की जेब में है। ऐसे में मजा आता है और दुश्मन भी हमेशा खौफ में रहता है।


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